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कि जैनियों का कोई नीतिशास्त्र ही नहीं है ( शिवसिंह राय बनाम दाखा १ इलाहाबाद ६८८ मुख्यतः ७०० पृष्ठ और हरनामप्रसाद ब० मण्डलदास २७ कलकत्ता ३७८ पृ० ) । यद्यपि सन् १८७३ ई० में कुछ जैन नीति-शास्त्रों के नाम न्यायालयों में प्रकट हो गये थे ( भगवानदास तेजमल ब० राजमल १०, बम्बई हाईकोर्ट रिपोर्ट २४८, २५५-२५६ ) । और इससे भी पूर्व सन् १८३३ ई० में जैन नीतिशास्त्रों का उल्लेख आया है ( गोविन्दनाथ राय ब० गुलालचन्द ५ स्ले रिपोर्ट सदर दीवानी अदालत कलकत्ता पृष्ठ २७६ ) । परन्तु न्यायालयों का इसमें कुछ अपराध नहीं हो सकता है । क्योंकि न्यायालयों ने तो प्रत्येक अवसर पर इस बात की कोशिश की कि जैनियों की नीति या कम से कम उनके रिवाजों की जाँच की जाय ताकि उन्हीं के अनुसार उनके झगड़ों का निर्णय किया जावे। सर ई० मानगो स्मिथ महोदय ने शिवसिंह राय ब० दाखा ( १ इल्लाहाबाद ६८ P. C. ) के मुकदमे में प्रिवी कौंसिल का निर्णय सुनाते समय व्याख्या की थी कि "यह घटना वास्तव में बड़ी आश्चर्यजनक होती यदि कोई न्यायालय जैनियों की जैसी बड़ी और धनिक समाजों को उनके यथेष्ट साक्षी द्वारा प्रमाणित कानून और रिवाजों की पाबंदी से रोकती. अगर यह पर्याप्त साक्षियों से प्रमाणित हो सकें ।" प्रेमचन्द पेपारा ब० हुलासचन्द पेपारा १२ वीकली रिपोर्टर पृ० ४६४ में भी जैन नीतिशास्त्रों का उल्लेख आया है । लयों के पुराने नियमानुसार पण्डितों से शास्त्रों के अनुकूल व्यवस्था ली गई होगी । यह मुकदमा सन् १८६६ ई० में फ़ैसल हुआ था ।
अनुमानतः न्याया
हिन्दुओं को भी ऐसा ही भय अपने शास्त्रों की मानहानि का था जैसा जैनियों को, परन्तु उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया। जैनियों
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