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सन्तान के अतिरिक्त जो ब्राह्मणी, क्षत्राणो, वैश्याणी माताओं से उत्पन्न हुए हों वह क्रमशः ४, ३, २ भाग के अधिकारी होते हैं ॥ २६-३०॥
खत्तिय सुद्दा णेया तिय दुगुणाप्प ‘भाइणो णेया । सुद्दजु सुद्दा दुगुदुग भायरिहा वैस्स सुद्दजा इक्कं ॥ ३१ ॥
अर्थ-क्षत्रिय (पिता) के पुत्र ३; वैश्य (पिता) के २; और शूद्र के एक भाग के अधिकारी, माता के वर्ण की अपेक्षा* से, होंगे ॥३१॥
तिय वणणज जादाविहु सुद्दो वित्तं ण लहइ सब्बत्थ । उरस णिये पयणोउ दत्तो भाइज्ज दोहिया पुत्तो !! ३२ ॥ गोदज वा खेतुब्भव पुत्तारा देहु दायादा । कण्णीणोपच्छण्णो पच्छणणो वाणो पुणब्भवोथुत्तो ॥ ३३ ॥
अर्थ-चाहे तीनों वर्षों के पिता से ही क्यों न उत्पन्न हो तो भी शूद्राणी माता के पुत्र पिता की सम्पत्ति को सर्वथा ही नहीं पाते हैं। औरस (जो धर्मपत्नी से उत्पन्न हुआ है), गोद लिया हुआ पुत्र, भतीजा, दोहिता, गोत्रज, क्षेत्रज ( जो उसी कुल में पैदा हुआ हो), यह लड़के निःसंदेह दायाद हैं। कुंवारी का पुत्र, निज पत्नी का पुत्र (जो छिपी रीति से पैदा हुआ हो, या जो खुले छिनाले उत्पन्न हुआ हो), कृत्रिम, जो लेकर पाला गया हो, ऐसी औरत का पुत्र जिसका
* इस बात को ध्यान में रखते हुए कि क्षत्रिय तीन वर्षों में विवाह कर सकता है अथवा अपने वर्ण में और अन्य नीचे के वर्गों में, वैश्य दो वर्गों में और शूद्र एक ही वर्ण में अर्थात् अपने ही वर्ण में। यह विदित होता है कि इस श्लोक का और इससे पहिले के श्लोकों का शायद यही अर्थ हो कि क्षत्रिय पिता की भिन्न-भिन्न वर्गों की स्त्रियों की औलाद (शूद्राणी के लड़कों को छोड़कर ) क्रमशः ३ और २ भाग पावेगी, और वैश्य के पुत्र समान (२ और २) भाग पावेंगे (शूद्राणी का पुत्र कुछ नहीं पायेगा); और शूद्र के लड़के एकएक भाग अपने पिता के हिस्से में पावेंगे।
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