________________ 16 गणधरवाद [ गणधर नहीं हो सकता / इसी न्याय से यदि तुम शरीर में आत्मा का भ्रम ही मानो तो भी प्रात्मा का अस्तित्व वहाँ नहीं तो अन्यत्र मानना ही पड़ेगा। यदि जीव का सर्वथा अभाव हो, तो उसका भ्रम नहीं हो सकता / [1572] अजीव के प्रतिपक्षी रूप में जीव की सिद्धि अन्य प्रकार से भी जीव की सिद्धि की जा सकती है। अजीव का प्रतिपक्षी कोई होना चाहिए / कारण यह है कि अजीव से व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पद का प्रतिषेध हा है। जहाँ-जहाँ व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पदों का निषेध होता है, वहाँ-वहाँ उनके प्रतिपक्षी अवश्य होते हैं / जैसे 'अघट' का प्रतिपक्षी 'घट' है। जब हम अघट कहते हैं, तब उसमें 'घट' रूप व्युत्पत्ति वाले पद का निषेध होता है / अतः 'अघट' का विरोधी 'घट' अवश्य विद्यमान है / जिसका प्रतिपक्षी नहीं होता, उससे व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पद का निषेध भी नहीं होता / जैसे अखर-विषाण अथवा अडित्थ / इसमें खर-विषाण शुद्ध पद नहीं, क्योंकि वह समास युक्त है। 'डित्थ' शब्द व्युत्पत्ति वाला नहीं है / अतः दोनों को व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पद नहीं कहा जा सकता / अतः अखर-विषाण के विरोधी खर-विषाण तथा अडित्थ के विरोधी डिस्थ की विद्यमानता आवश्यक नहीं, किन्तु अजीव में यह बात नहीं। उससे व्युत्पत्ति वाले शुद्ध पद जीव का निषेध हुआ है। अतः जीव का अस्तित्व अवश्यंभावी है। निषेध्य होने से जीव-सिद्धि पुनश्च, तुम कहते हो कि 'जीव नहीं है / इसी कथन से जीव का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है / यदि जीव का सर्वथा अभाव हो, तो ‘जीव नहीं है' ऐसा प्रयोग ही शक्य नहीं। जैसे दुनिया में यदि घड़ा कहीं भी न हो, तो 'घड़ा नहीं है' ऐसा प्रयोग ही न होता। इसी प्रकार जीव के सर्वथा अभाव में 'जीव नहीं है' यह प्रयोग भी नहीं हो सकता / जब हम यह कहते हैं कि 'घट नहीं है तब घट हमारे सामने न होकर भी अन्यत्र अवश्य विद्यमान होता है। इसी प्रकार ‘जीव नहीं है' ऐसा कथन करने पर यदि यहाँ नहीं तो अन्यत्र उसका अस्तित्व मानना ही चाहिए। जो वस्तु सर्वथा अभाव स्वरूप हो उसके विषय में निषेध भी नहीं किया जाता। यह भी नहीं कहा जाता कि वह 'नहीं है। जैसे कि खर-विषाण और छठे भूत के विषय में / तुम जीव का निषेध करते हो, अतः तुम्हें उसका अस्तित्व मानना चाहिए। [1573] ___ इन्द्रभूति-'खर-विषाण नहीं है ऐसा प्रयोग होता तो है। फिर आप यह कैसे कहते हैं कि जिसका सत्व अस्तित्व न हो उसके विषय में यह प्रयोग नहीं होता कि 'नहीं है और जिसके साथ 'नहीं है' इस शब्द का प्रयोग होता है, उसका आपके मत के अनुसार अवश्य अस्तित्व होता है / अतः आपको 'खर-विषाण' का भी अस्तित्व मानना पड़ेगा, क्योंकि यह प्रयोग होता है कि खर-विषाण नहीं है / 1. लकड़ी के हाथी को डित्य कहते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org