________________ 14 गणधरवाद [ गणधर आकार वाले किन्तु नित्य पदार्थो का कोई कर्ता सिद्ध नहीं होता, परन्तु जिन पदार्थों का प्राकार सादि और प्रतिनियत होगा, उनका ही कोई कर्ता सिद्ध होगा। दूसरा आत्म-साधक अनुमान यह है- इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता होना चाहिए, क्योंकि वे करण हैं, जैसे कि दण्डादि करणों का कुम्भकार आदि अधिष्ठाता होता है। जिसका कोई अधिष्ठाता न हो, वह आकाश के समान करण भी नहीं होता / अतः इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता मानना चाहिए और वह आत्मा है / [1567] तीसरा आत्म-साधक अनुमान यह है-जब इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण(आदान) हो तब दोनों के मध्य ग्रहण-ग्राहू-भाव सम्बन्ध में कोई आदाता-ग्रहण करने वाला होना चाहिए। क्योंकि उन दोनों में आदान-प्रादेय भाव है। जहाँ आदानप्रादेय भाव होता है वहाँ कोई आदाता होता है। जैसे लोहे और संडासी में आदानआदेय भाव है तथा लुहार वहाँ पादाता है / इसी प्रकार इन्द्रिय और विषय में भी आदान-प्रादेय भाव होने के कारण उनका कोई प्रादाता होना चाहिए / जहाँ आदानआदेय भाव नहीं होता, वहाँ अादाता भी नहीं होता, जैसे कि आकाश में / अतः इन्द्रिय और विषयों में कोई प्रादाता मानना चाहिए और वह आत्मा है / [1568] चौथा आत्म-साधक अनुमान यह है-देहादि का कोई भोक्ता अर्थात भोग करने वाला होना चाहिए, क्योंकि वह भोग्य है, जैसे भोजन और वस्त्र भोग्य पदार्थों का भोक्ता पुरुष है / जिनका कोई भोक्ता नहीं होता, वे खर-विषाण के समान भोग्य भी नहीं होते / शरीरादि भोग्य हैं, अतः उनका भोक्ता होना चाहिए। जो भोक्ता है, वही प्रात्मा है। पाँचवाँ अनुमान यह है-देहादि का कोई अर्थी अथवा स्वामी है क्योंकि देहादि संघात रूप हैं / जो संघात रूप होते हैं, उनका कोई स्वामी होता है, जैसे घर संघात रूप है और पुरुष उसका स्वामी है। देहादि भी संघात रूप हैं, अतः उनका भी कोई स्वामी होना चाहिए / जो स्वामी है वही प्रात्मा है / [1569] - इन्द्रभूति--उक्त हेतुओं से केवल यही सिद्ध होता है कि शरीर का कोई कर्ता, भोक्ता आदि है। किन्तु वह जीव है, यह इनसे सिद्ध नहीं होता तो फिर आप यह कैसे कहते हो कि कर्ता आदि यह जीव है। भगवान-शरीर का कर्ता, भोक्ता अथवा स्वामी ईश्वर आदि अन्य कोई व्यक्ति नहीं हो सकता, क्योंकि यह युक्ति से विरुद्ध है / अतः जीव को ही उसका कर्ता भोक्ता और स्वामी मानना चहिए। इन्द्रभति-कर्ता, भोक्ता और स्वामी के रूप में जीव के साधक जो हेतु आपने बताए हैं वे सव साध्य से विरोधी वस्तु के साधक होने से विरुद्ध हेत्वाभास हैं। क्योकि आप उक्त हेतुओं से जिस जीव को सिद्ध करना चाहते हैं वह तो नित्य, अमूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org