________________ गणधरवाद [गणधर के अनुरूप अमूर्त और अचाक्षुष आत्मा को देह से भिन्न गुणी के रूप में मानना चाहिए। . इन्द्रभूति--आप ज्ञानादि को देह के गुण नहीं मानते, किन्तु इसमें प्रत्यक्ष बाधक है / ज्ञानादि गुण शरीर में ही दृष्टिगोचर होते हैं। भगवान्--ज्ञानादि गुणों के देह में होने का प्रत्यक्ष ही अनुमान बाधित है, अतः ज्ञानादि गुण देह में नहीं माने जा सकते, उन्हें देह से भिन्न प्रात्मा में ही मानना चाहिए। इन्द्रभूति--ज्ञानादि गुणों का देह में प्रत्यक्ष होना किस अनुमान से बाधित है ? . भगवान-देह में विद्यमान इन्द्रियों से विज्ञाता-आत्मा भिन्न है, क्योंकि इन्द्रियों के व्यापार के अभाव में भी उनसे उपलब्ध पदार्थों का स्मरण होता है। जिस प्रकार झरोखे द्वारा देखी गई वस्तु को देवदत्त झरोखे के बिना भी याद कर कर सकता है, अतः देवदत्त झरोखे से भिन्न है; उसी प्रकार इन्द्रियों के बिना भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध पदार्थों का स्मरण करने से आत्मा को इन्द्रियों से भिन्न मानना चाहिए। इस अनुमान से प्रत्यक्ष बाधित होने के कारण वह प्रत्यक्ष भ्रान्त है। अतः स्मरणादि विज्ञानरूप गुरगों का गुरगी देह नहीं हो सकता। [1562] सर्वज्ञ को जीव प्रत्यक्ष है ___ मैं तुम्हें यह बता चुका हूँ कि तुम्हें भी आत्मा का प्रत्यक्ष है। तुम्हारा यह प्रत्यक्ष प्रांशिक है, क्योंकि तुम्हें आत्मा का सर्व प्रकार से सम्पूर्ण प्रत्यक्ष नहीं है, किन्तु मुझे उसका सर्वथा प्रत्यक्ष है। तुम छद्मस्थ हो, वीतराग नहीं, अतः तुम्हें वस्तु के अनन्त स्व और पर पर्यायों का साक्षात्कार नहीं हो सकता, किन्तु वस्तु के अंश का साक्षात्कार होता है। जिस प्रकार घटादि पदार्थ प्रदीप आदि से देशतः प्रकाशित होते हैं, फिर भी यह कहा जाता है कि घट प्रकाशित हुआ, उसी प्रकार छद्मस्थ का घटादि पदार्थों का प्रत्यक्ष अांशिक प्रत्यक्ष है, फिर भी यह व्यवहार होता है कि घट का प्रत्यक्ष हुअा। इसी आधार पर आत्मा के सम्बन्ध में तुम्हारे प्रांशिक प्रत्यक्ष के विषय में कहा जा सकता है कि तुम्हें आत्मा का प्रत्यक्ष हो गया। मैं केवली हूँ, अतः मेरा ज्ञान अप्रतिहत और अनन्त है। मुझे प्रात्मा का सम्पूर्ण भाव से प्रत्यक्ष है। तुम्हारा संशय अतीन्द्रिय था अर्थात् तुम्हारी आत्मा में विद्यमान संशय बाह्य इन्द्रियों से अग्राह्य था फिर भी मैंने उसे जान लिया। यह बात तुम्हें प्रतीति सिद्ध है। इसी प्रकार तुम यह भी समझ लो कि मुझे प्रात्मा का सम्पूर्ण साक्षात्कार हुआ है। [1563] 1. इस विषय की वायुभूति के साथ होने वाले वाद में विशेष चर्चा की गई है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org