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________________ १. १७.१४ ] हिन्दी अनुवाद इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करते तथा जिनेन्द्रका स्मरण करते हुए उन दोनोंको, वे . यमके समान ललकारें मारते हुए कठोर राज-सेवक कौल धर्मावलम्बियोंको आनन्दित करनेवाले उस त्रिशूलधारिणी चण्डी देवीके मन्दिर में ले गये ॥१५॥ १६. देवीके मन्दिरमें कौल धर्मानुयायियोंका स्वरूप उस त्रिशूलिनी देवीके मन्दिर में कोई सिंग फूंक रहे थे, कोई बाणोंको ऊपर उठा रहे थे तथा अपने भुजदण्डोंपर धनुषके दण्ड दिखा रहे थे। वे लम्बे मयूरपंखोंके वस्त्र धारण किये हुए थे। काली स्याही पोते हुए थे और पीतलके आभूषण धारण किये थे। उनकी कमरपर वस्त्रके टुकड़ोंकी ध्वजाएं बँधी हुई थी। उनके हाथोंमें चर्म और कपाल चमक रहे थे। वे अपने-अपने गुरु परम्परानुसार रूढ़ वेशोंको प्रगट कर रहे थे। वे अपने अंगोंको चमड़ेसे प्रच्छादित किये हुए कौल धर्मको घोषणा कर रहे थे। वे अपनी विशेष मुद्रासहित दूरसे नमस्कार कर रहे थे एवं पैरोंकी घरघराहटसे लगातार घर-घर शब्द उत्पन्न कर रहे थे। वे अपनी-अपनी बातें कह रहे थे। उनके वेश बहुत विकृत थे। वे अट्टहास कर रहे थे और अपने-अपने केशोंको झाड़-झटक रहे थे। उस मन्दिरमें विविध प्रकारके कौलधर्मी सम्मिलित थे, जो अपने आठों अंगोंको नवातेबल खाते हुए बड़े कोलाहल सहित क्रीड़ा कर रहे थे। वहाँ ढोलक, मृदंगादि बाजे बज रहे थे तथा लोग अपने-अपने इष्ट-मिष्ट मद्य पो रहे थे। वहाँ पशुओंके शिर कट-कटकर भीषण रूपसे गिर रहे थे और लोग रस तथा चर्बीसे मिश्रित माँस खा रहे थे। वे अपने मुख में रुण्डके टुकड़ोंको ग्रहण कर चामुण्डा देवीके प्रचण्ड गीत गा रहे थे। अपनी दुष्प्रेक्ष्य लाल आँखों द्वारा दर्शकोंके हृदयमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाली योगिनी, शाकिनी और डाकिनी नृत्य कर रही थों। वहाँके प्रांगणकी भूमि पशुओंके रुधिररूपी जलसे सींचो गयी थी। पशुओंकी लम्बी-लम्बी जिह्वाओंसे वहाँ विशेष अर्चना ( सजावट) की गयी थी और पशुओंको हड्डियोंके चूर्णसे रंगावली की गयो थी। पशुओंके तेलसे दीपकोंकी ज्योति प्रज्वलित हो रही थी तथा पशुओंके चर्मके चंदोवेसे आकाशको सजाया गया था। ऐसे उस मारी देवीके देवालयमें जाकर, जैसे सिंह अपनी भीषण दाढ़ोंसे अपना भोजन कर रहा हो, या मेघ बिजलीसे चमक रहा हो, अथवा हाथी अपनी खीसे दिखा रहा हो ऐसे अपने ऊपर उठाये हुए खड्गसहित उन्होंने राजाको देखा ॥१६।। १७. क्षुल्लकों द्वारा राजाका सम्बोधन तथा राजाका भाव-परिर्वतन तदनन्तर उन छुल्लक-छुल्लिकाने भावसे स्फुरायमान भाषण करते हुए राजाको इस प्रकार सम्बोधित किया-हे राजराजेश्वर, आप शुद्ध और श्रेष्ठ वंशके हैं। राजलक्ष्मीरूपी पद्मिनीके हंस हैं तथा आपने समस्त यश संचित किया है। उनके इस क्रूर कर्मको विनष्ट करनेवाले तथा धर्मको बढ़ानेवाले मधुर घोषसे राजाका रोष उसी प्रकार शान्त हो गया जिस प्रकार गुणश्रेणी चढ़नेपर ज्ञान द्वारा योगीका अज्ञान दूर हो जाता है, दान द्वारा स्नेह दृढ़ होता है, प्राणदान द्वारा प्राणीमें कृतज्ञता भाव प्रगट होता है । अथवा जैसे शिलाओंके समूहसे पर्वत और फलोंके समूहसे वृक्ष गौरवशाली हो जाते हैं, अथवा जैसे कलाओंके संचयसे चन्द्रमा और जलसमूह द्वारा जलधि सौन्दर्य और गम्भीरताको प्राप्त होते हैं। भय और मद विनष्ट करनेवाले उन बालकोंको देखकर राजा मारिदत्त विचार करने लगा- इन बालक-बालिकाओंकी अंगलियाँ सोधी और लक्ष्मो हैं। इनके पैरोंके तलवे लाल और चमकीले हैं। इनके गुल्फ गूढ़ हैं जैसे मानो कोई गम्भीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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