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प्रस्तावना
समाप्त हुई । इन उल्लेखोंपरसे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि उक्त तीनों प्रकरण मूल ग्रन्थ रचनाके लगभग तीन शताब्दी पश्चात उसमें जोड़े गये और यह एक विशेष उल्लेखनीय व असाधारण बात है कि क्षेपणकर्ताने अपने जोड़े हुए प्रकरणोंका इतनी प्रामाणिकतासे उल्लेख कर दिया है, तथा छिपे तौरसे उन्हें मलग्रन्थका अंग बनानेका प्रयत्न नहीं किया।
इस ग्रन्थके प्रथम सम्पादक डॉ. वैद्यका अभिमत है कि इन जोड़े हुए प्रकरणों की "भाषा अभिव्यक्ति व छन्दमें 'रूक्षता' दिखाई दी" और यदि उन्हें ग्रन्थके मुद्रण होनेसे पूर्व इन बातोंका पता चल जाता तो वे इन्हें हटाकर केवल ग्रन्थके मूल संक्षिप्त पाठको ही देनेका प्रयत्न करते । तथापि उन्होंने यह भी कहा है कि इस विषयकी जो जानकारी उन्होंने अपनी प्रस्तावनामें दी है उसके आधारसे मूल ग्रन्थको इन प्रक्षेपोंसे पृथक करना सरल होगा।
इस सम्बन्धमें डॉ. वैद्यके संकेतानुसार मेरी भी इच्छा हुई और मैंने प्रयास भी किया कि उक्त अंशोंको मूल पाठसे पृथक् कर दिया जाये और उन्हें पाद-टिप्पण या परिशिष्टमें रख दिया जाये। किन्तु मैंने देखा कि उन प्रकरणोंको अपने वर्तमान स्थानसे हटानेपर विषय व सन्दर्भकी दृष्टिसे रचना स्पष्टतः खण्डित होती है । उदाहरणार्थ, यदि प्रथम अंश १,५,३ से लेकर १,८,१७ तक को हटा दिया जाये, तो वहाँ राजा मारिदत्तका दो पंक्तियों मात्र वर्णनसे सन्दर्भ छूटकर सहसा चण्डमारीदेवीके वर्णनपर पहुँच जाता है। पांचवें कडवककी जो दो पंक्तियाँ मात्र रह जाती हैं, उन्हें नवें कडवकके ऊपर ही हैं. जिससे कडवककी एकरूपता भी नष्ट हो जाती है। और सबसे बडी कमी यह उत्पन्न हो जाती है कि जो भैरवानन्द कथाके विकासके एक विशेष पात्र हैं, उनके राजासे मिलनेका कोई प्रसंग ही शेष नहीं रहता ।
इसी प्रकार यदि हम १,२४,९ से १,१७,२३ तकका प्रकरण हटा देते हैं, तो राजकुमार यशोधरके तारुण्य-वर्णनसे सन्दर्भ अकस्मात् टूट कर एक पंक्तिमें इस कथनपर पहुँच जाता है कि राजाने उसका पाँच राजकन्याओंसे विवाह करा दिया और फिर वे अपना वृद्धत्व देखकर राज्यसे विरक्त हो गये। इस प्रकार यशोधरकी जिस अमृतमती नामक पटरानीके कारण कथाका समस्त घटनाचक्र घुमा उसका नाममात्र भी उल्लेख यहाँ नहीं रहता।
__ तीसरे प्रकरणको ४,२२,१७ ( ब ) से ४,३०,१५ तक हटा देनेसे पूर्वोक्त छन्दकी अर्धाली मात्र शेष रह जाती है और वाक्य भी पूरा नहीं होता । यहाँ प्रसंग मुनि सुदत्तके देवी-मन्दिरमें आगमनका है। उनके आनेपर अभयरुचि क्षुल्लकने उनकी वन्दना की और फिर कहा गया है "राएण वि तहो पय-पंकयाइं” अर्थात् "राजाने भी उनके चरणकमलोंको' बस । इसके आगे "नमस्कार किया" आदि वाक्य-खण्ड प्रक्षिप्तमें चला जाता है और काव्य कथानकका कुछ भी आगेका वर्णन हाथ नहीं रहता । केवल तीसरे कडवकका घत्तामात्र रह जाता है, जहाँ "पुप्फयन्तु जिणु महु सरणु" ( पुष्पदन्त जिनेन्द्र मेरे शर हैं ) इसके साथ कडवक, सन्धि तथा काव्य-कथानक सब समाप्त हो जाता है ।
इस परिस्थितिको देखकर मुझे जान पड़ा कि उक्त प्रक्षिप्त अंशोंको काव्य-रचनासे सर्वथा पृथक् नहीं किया जा सकता ( एक ओर यह भी प्रमाणित है कि तीनों स्थलोंपर प्रक्षिप्त अंश है, और दूसरी ओर यह भी कि उन्हें दूर करनेसे काव्य व कथानक ऐसा खण्डित हो जाता है कि वह मनको बहुत खटकने लगता है। अन्तिम सन्दर्भको हटानेसे तो यही कहना पड़ेगा कि पुष्पदन्तकी यह रचना अपूर्ण थी। इस परिस्थितिमें मैं इस निर्णयपर पहुँचा कि गन्धर्व कविने तीनों सन्दर्भ जोड़े अवश्य है, किन्तु यह कार्य पूर्व रचनाको पूर्णतः अविकल रखते हुए नहीं हो सका और उन्होंने अवश्य ही पूर्व रचनाके कुछ अंशोंमें घटा-बढ़ी व हेर-फेर भी किया है। तथापि इसका पता न सेनगण परम्पराकी प्राचीन प्रतियोंसे लगता और न बलात्कारगण परम्पराकी प्रतियोंसे । अतएव जब तक इस विषयके और अधिक प्रमाण व पाठ हस्तगत न हों, तब तक इस ग्रन्थको उसके वर्तमान स्वरूपमें ही रखना उचित है। इस विषयका कोई अधिक स्पष्ट प्रमाण हाथ लगेगा, इसकी भी मुझे आशा कम ही है।
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