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________________ ४. २१. १९] हिन्दी अनुवाद १४१ सात अधोलोकोंके चौरासी लाख बिलोंमें रहनेवाले, पूर्ववर्ती जन्मके वैर व बलका बोध रखनेवाले, शरोरके रोमरूपसे उत्पन्न हुए महा आयुधों द्वारा युद्ध करनेवाले तथा नित्य एकदूसरेके संहारक सप्त प्रकारके नरकवासी जीवोंमें तप नहीं होता। जिन्होंने पूर्व भवमें संयम सहित भोगोपभोग किया है, और चन्द्रमुखी ललनाओंके मुखका आलोकन किया है एवं इस भवमें कल्पवृक्षोंके फलोंका स्वाद जाना है और एक, दो या तीन पल्यकी आयु का बन्ध किया है, ऐसे तीस भोगभूमियोंके निवासी क्रीड़ाशोल मनुष्योंमें भी, हे भद्रे, तप नहीं होता। देवीको पूजा करनेका जिनका पुण्य उछल आया है या देवोके प्रति भक्तिका पुण्य अवशेष है अथवा जिन्होंने अन्य मिथ्या मतधारी तापस बनकर तपश्चरण किया है, जिन्होंने कुपात्रदान किया है, और जिसके कारण उनके कान, मुख व करपल्लव आदि अंग विपरीत अर्थात् कुरूप हुए हैं, ऐसे छियानबे कुभोगभूमियोंके मनुष्योंमें तथा आठ सौ पचास म्लेच्छ-खण्डोंमें भो तप नहीं होता। किन्तु जम्बद्वीप, पालकीद्वोप और पुष्करवरद्वोपके अद्धं भागवर्ती सत्रह सौ आर्य भूमिखण्डोंमें उत्पन्न होकर जो गुरुको प्रणाम करके निश्चल भावसे धर्म ग्रहण करता है, वही मान-रहित अकुटिलभावसे पंचेन्द्रियोंके सुखको तृणके समान जानकर तप कर सकता है, ऐसा मुनियोंने कहा है ॥ २०॥ २१. देवीका सम्यक्त्व-ग्रहण, वरदानको इच्छा, क्षुल्लक द्वारा अस्वीकृति व जीवबलिका परित्याग ऐसा तप करनेवाले मुनिराज कुछ दिनोंमें ही अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी त्रिरत्न तथा परम आराधनाके फलस्वरूप अविचल केवल-ज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। सम्यक्त्व तो देवों और नरकवासियोंके भी हो सकता है, किन्तु उनके जन्म भरमें भी तपश्चरण नहीं हो सकता। कहीं-कहीं तिथंचोंमें अणुव्रत होते हैं, किन्तु पंचमहाव्रतोंका भार तो केवल मनुष्य ही वहन कर सकते हैं। क्षुल्लकके ये वचन सुनकर अपने पूर्वाग्रहोंको दूरकर उस वनदेवीने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया । फिर उसने मधुर वाणीमें गुरुके चरणारविन्दमें सिर नवाकर प्रणाम करते हुए पूछाइस चतुगंति तथा पातालगतिसे अतिरुद्र दुस्तर व घोर संसाररूपी जलसमुद्र में पड़ते हुए मुझे आपने अपना हस्तावलम्ब दिया है. आप प्रवचनका सामर्थ्य रखनेवाले कोई देव हैं। आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपकी दासी हूँ। अतः हे गुणरूपी रत्नोंकी राशि, कहिए आपको क्या वरदान दिया जाये ? तब उस देशव्रती यतीश्वरने मेघ समान विजयदुन्दुभिके स्वरसे प्रत्युत्तर दियाजहां व्रण ( घाव ) नहीं होता, मक्खियां नहीं भिनभिनाती, जो निर्मोह हैं, वे दूसरेके दिये दानको नहीं लेते । इसपर देवीने साधु-साधुको घोषणा की । साधुको पुनः पुनः भाव सहित प्रणाम किया और राजासे सम्भाषण करके उन्हें आदेश दिया कि तुम अब सौम्यभाव रखो और किसी पशुका घात मत करो । वन व उपवनमें चौराहेपर या इस गृह ( मेरे मन्दिर ) में जो बहुत-से शरीरधारी प्राणी छेदे व भेदे गये हैं, जो स्वाभाविक प्राणी हैं, या कृत्रिमरूपसे बनाये गये हैं, उन सभी को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं, अतएव मैं उन सबको मुक्त करती हूँ। अबसे जो कोई भी मेरे उद्देश्यसे जीवका बलिदान करेगा उसका मैं सकुटुम्ब विनाश कर डालूंगी। इतना कहकर वह मनोहर देवांगना अदृश्य हो गयी और अपने देवलोकको चली गयी। __और यहाँ अपने नेत्रोंको बन्द करके तथा अपने दुर्गुणोंको निन्दा करके अपने हृदयमें शुद्ध बुद्धिपर आरूढ़ हो राजा मारिदत्त उन दिग्गजगामी क्षुल्लक स्वामोके चरणोंमें पड़ गया ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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