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________________ हिन्दी अनुवाद १७. अभयरुचिका वृत्तान्त सुनकर देवी तथा राजा मारिदत्तका भाव-परिवर्तन तथा क्षुल्लक- युगल की पूजा ४. १८. ७ ] उन किंकरोंने हमें यहाँ लाकर आपको दिखलाया और, हे राजन् ! आपने मुझसे अपना वृत्तान्त पूछा और मैंने आपको कह सुनाया कि मैं इस भवरूपी कीचड़ में किस प्रकार भ्रमण करता फिर रहा हूँ । क्षुल्लकके उक्त समस्त वृत्तान्तको सुनकर वह चण्डमारी देवी तथा राजा मारिदत्त जो जीवसंहार करने में प्रवृत्त थे, वे अपने चित्तमें विषादपूर्ण व पापसे विरक्त हो गये और अन्य जीवोंको ताप न देनेवाले अर्थात् अहिंसाधर्म में विलग्न हो गये। उन दोनोंको अब उस श्रेष्ठ ज्ञानका बोध हो गया, जो त्रैलोक्य में विचित्र, पवित्र और प्रधान है। उन्होंने विचार किया कि यह शिशुयुगल (कुमार- कुमारी) तो निर्मल हैं, पूजनीय हैं तथा चन्द्रके समान स्वच्छ चूड़ामणि सहित सिरके नमन द्वारा वन्दनीय हैं। ऐसा चिन्तन कर उन्होंने उस मन्दिरका तो परित्याग कर दिया, जो वसा और चर्बी से गीला हो रहा था, रससे आर्द्र था, चारों दिशाओं में बहते हुए रक्तसे परिपूर्ण था तथा जहाँ अस्थियां, मुण्ड, तुण्ड वा मज्जा आदिके खण्ड तलपर बिखरे हुए थे । उन्होंने एक नया गृहमण्डप बनवाया जो नील मणियोंसे जड़ा हुआ था व मोतियोंकी मालाओंसे युक्त होकर सुन्दर दिखाई दे रहा था । इसके चारों ओर जो वन था वह बेलाओं तथा कंकेलीके पुष्पोंसे उल्लसित हो रहा था व आम्रवृक्षोंकी शाखाओंके नये दलोंसे लाल होता हुआ लहलहा रहा था । वहाँ हिमताल, ताड़ और तमालके वृक्ष आकाशसे जा लगे थे और भूमिपर हंस और हंसनियोंके गमनागमनकी लीला हो रही थी । वहाँके लता - मण्डपोंमें यक्षेन्द्र उतर आये थे, जो बहुत भले प्रतीत होते थे तथा शिलाओंपर आसीन सीमन्तिनी स्त्रियोंके गीतों की ध्वनि हो रही थी । फले हुए कमलोंपर गुंजार करते हुए भ्रमरोंका शब्द सुनाई पड़ रहा था । वायुमें उड़ती हुई पुष्परजके बिखरावसे सब ओर पीलापन दिखाई दे रहा था । आकाशमें उड़ते हुए पुंस्कोकिलोंको रमणीय ध्वनि हो रही थी । चूनेसे पुते हुए आलय उभरकर श्वेत दिखाई दे रहे थे। ऐसे उस वनमें उस नाना गुणवती व विक्रियाशक्तिधारिणी देवीने उस उद्यानके मध्य अपनी पूर्ण शक्ति और भक्तिसे उस महान् क्षुल्लक-युगलको सिंहासनपर विराजमान कराया। फिर उसने अपने उग्र वेषको त्याग कर लोगों के चक्षुगम्य तथा आनन्ददायी रूपको धारण किया। उसके हाथों में स्वर्णमयो अध्यं पात्र था, जो स्वच्छ और रम्य होता हुआ जल और पुष्पोंसे भरा था एवं बहुमूल्य वस्त्र से ढँका था । इस रूपमें जब वह देवी धरासे बाहर निकली तो वह सौम्यभावयुक्त थी । उसका कांचीकलाप उसके १३७ तक लटक रहा था । वह असाधारण लावण्य और सौभाग्यको सारभूत थी। उसकी लटकती हुई हारावली के मोती दीप्तिमान हो रहे थे । उसका सदैवका शृंगार-भार आज अपने उत्कृष्टरूप पर पहुँच रहा था। उसके नूपुरोंकी झंकारसे मयूर नाचने लगे थे। सघन, विशाल और उन्नतस्तनों से 'युक्त क्षीणकटि वह देवो अब जिनेन्द्रोक्त शास्त्रके पथमें लीन हो गयी थी । उसने समस्त बन्दी पशुओं की ओर दयाभावसे देखा और समीप आकर उज्ज्वल नखोंसे युक्त उन क्षुल्लक गुरुओं के चरणों में जल-कमलसे युक्त तथा भ्रमरों द्वारा चुम्बित अपने अर्घ्यपात्रको उलट दिया और उनके शिष्य बननेकी अपनी इच्छा प्रकट की ।। १७॥ १८. देवी द्वारा दीक्षाकी याचना, किन्तु क्षुल्लक द्वारा देव-देवियोंका व्रत- निषेध देवीने कहा कि हे भगवन्, एक कृत्रिम कुक्कुटका घात करनेसे आपने इस दुःखदायी जन्म-जन्मान्तर में भ्रमण किया, किन्तु कौलधर्मके अनुयायी तो जीवराशिका भक्षण करते और रुधिरके समुद्र में स्नान करते हैं। जिस देवांगनाने अज, मेष, और महिषोंके कण्ठसन्धिका छेद कराया था अर्थात् गला कटवाया था वही अब अनुकम्पाभावसे बोली- में पापकारिणी हूँ, किन्तु मेरा यह पाप जबतक मेरा भक्षण नहीं कर लेता तभी उससे पूर्व ही तुम मेरी रक्षा १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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