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________________ ४. ११. १४ ] हिन्दी अनुवाद १२९ ध्यानका अभ्यास करो। कामके तापको विनष्ट तथा समताभावको दृष्टिगत करते हुए उन अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करो, जो दुर्गतिमें गमनका निवारण करती हैं, धर्मरूपी वृक्षको सोंचनेके लिए जलकी प्रणालियाँ हैं तथा जिनको जगत्-गुरुने सिखलाया है ।।९।। १०. अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका उपदेश व अनित्य भावनाका स्वरूप शरीरका लावण्य, वर्ण, नया यौवन, रूपविलासादि सम्पत्ति ये सब इन्द्रधनुष, मेघ-जाल तथा जलके बबूलेके समान क्षणभंगुर हैं। ये किसके पास शाश्वत रूपसे ठहरे हैं ? बालकपन नष्ट होता है नवयौवनके द्वारा, और यौवनका नाश होता है वृद्धत्वसे । वृद्धत्व भी समाप्त हो जाता है जब प्राण निकल जाता है, और प्राण भी स्कन्धसमूहमें गलित हो जाता है। स्कन्ध भी अपनेअपने अनेक गुणों द्वारा परिणमन करते और विविध प्रकारको पर्यायोंको धारण करते रहते हैं। राग बह जाता है वैराग्य उत्पन्न होनेसे; तथा रोगोंके द्वारा नीरोगपना नष्ट हो जाता है। जो जीवित है, उसे मृत्यु भी अवश्य प्राप्त होती है। श्रीमान् भी दरिद्रावस्थाको प्राप्त हो जाता है। चलते-चलते सूर्य भी अस्त हो जाता है। तब फिर कौन-सा ऐसा जीनेवाला जीव है जो कालके प्रभावसे मृत्युको प्राप्त न हो? यदि रागके द्वारा आयुकी ग्रन्थि बँधती है, तब फिर तत्काल सन्तोष देनेवाला अच्छा काम करनेसे भी क्या लाभ ? आयु भी जैसे-जैसे एक-एक वर्ष जाता है वैसे-वैसे एक-एक वर्षसे कम होती जाती है। इस प्रकार एक भवमें बाँधा हुआ आयुप्रमाण भी समाप्त हो जाता है । केश धुंघराले हों या सीधे, वे लम्बी साँकलोंके समान हैं, जिनके द्वारा पुरुषरूपी पति नारीरूपी खूटेसे बाँधा जाता है और कालरूपी शार्दूल द्वारा शीघ्र ही भक्षण कर लिया जाता है । मनुष्य सुखकी इच्छा करता है, मरणसे भय खाता है और देवोंको शरणमें प्रवेश करता है। वह वैद्योंके घर भी जाता है, और मन्त्र भी पूछता है, तो भी वह क्षयरूपी कालसे बचता नहीं ॥१०॥ ११. अशरण, एकत्व, अन्यत्व व संसार-भावना राजाको लक्ष्मीका उपभोग उसके परिवार द्वारा किया जाता है तथा महायुद्ध में उसकी रक्षा भी की जाती है। एक पसर ( पसौ, हस्तांजलि ) भर तण्डुलके लिए सब कोई राजाके पीछे दौड़ता है। इस प्रकार राजाके रमणीय राज्यवैभवका उपभोग तो सब परिजन करते हैं, किन्तु अपने कर्मका फल राजाको अकेले ही भोगना पड़ता है । चौदह लोकोंमें भरे हुए जीवसमूहोंके बीच यह जीव क्रमशः सभी प्रकारके कलेवरोंमें निवास करता है। जीव अकेला ही अपने पुण्यपापका सम्बल लेकर अन्य जन्मका पाहुना बनकर जाता है। जगत्में जीव अकेला ही चौरासी लाख दुनिरीक्ष्य योनियोंमें भ्रमण करता है। उन नये-नये भवोंमें जोवके नेत्र भी अन्य-अत्य होते हैं, घ्राण भी अन्य, संस्पर्शन भी कोई भिन्न हो, कान भी नये-नये होते हैं और मुखमें जिह्वा भी अन्य-अन्य हो लपलपाती है । अन्य-अन्य ही कर्म जीवको निगलते हैं तथा अन्य-अन्य नाना प्रकारके अंग उसे प्राप्त होते हैं । जीवके लिए समस्त चल और अचल वस्तु-समूह उसे पृथक हो होता है। तब भी न जाने क्यों मूर्ख जीव मोहरूपी महा-दहमें अपनेको पटक रहा है ? यह जीव भावरूपी अन्धकारके विभ्रमरूप नरक, तिर्यक्, देव और मनुष्य; इन चारों भवोंमें परिभ्रमण करता है। समस्त निर्मल केवलज्ञान द्वारा जाने गये इस विस्तीर्ण अनन्तानन्त आकाशके मध्यमें यह प्रथम जगत् (अधोलोक) किसीके द्वारा स्थापित उलटके रखे हुए मल्लक ( सकोरे ) के आकारका है । मध्यम लोक वज्रके मध्य भागके समान है ( झालरके समान चौड़ा और गोल ) तथा ऊर्ध्वलोक, हे राजन्, मृदंगके आकारका मुनियों द्वारा कहा गया है।॥११॥ १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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