________________
४. ६.२ ]
हिन्दी अनुवाद
१२३
1
मूर्छित हो गये। तब सेविकाओंने हाथ देकर हमें सँभाला। उन्होंने शीतल जलसे हमारा सेचन किया तथा चमरों के पवनसे हमें आश्वासित किया । पूर्वभवोंकी वेदनाओंको जानते हुए हम दोनोंने किसी प्रकार पुनः चेतना प्राप्त की । फिर हम दोनों अश्रुओंसे मलिन मुख होकर उठे और मुनिराज - के चरणयुगल में पड़कर रह गये । हमारी उस मूर्छासे राजकुलरूपी कमलकी लक्ष्मी मृगनयनी रानी कुसुमावली भी मूर्छित हो गयी। तब समस्त अन्तःपुरको नारियाँ अपने कोमल करतलोंसे छाती पीटती हुई शोक करने लगीं। किसी वधू ने कहा - हे सौभाग्य-पुंज, हे चित्ताकर्षक शक्तिरूप माता, उठो उठो । कोई बोल उठी- महाराज तो मेरे मुखको ओर भी नहीं देखते । जब आप आदेश दे दें तभी वे ताम्बूल ग्रहण करते हैं । हे देवी, उठिए, उठिए और अपना इष्ट कार्य कीजिए । आपने ही तो मुझे अपना स्नानवस्त्र दिलवाया था । में तो दुःखमें डूबी हुई थी, तब आपने ही तो मुझे यह भोग-विलास प्रदान किया था और भूषित करके मुझे अपने पति के निवासपर भेजा । कोई अन्य एक वधूने कहा- तुम हमारी सौत नहीं हो, तुम तो मेरी माता हो, बहिन हो तथा अभिन्न सखी हो । हे भद्रे, उठो उठो । दया करो तथा व्रत ले के जाते हुए अपने पतिको रोको । तब मूर्छा को संकुचित करके और हमारी ओर देखकर महादेवीने अपने झरते हुए अश्रुजलसे गीले नेत्रोंको डुलाया, जैसे मानो ओससे सिंचे हुए कमल डोल उठे हों ||४||
५. राजकुमार द्वारा आत्मनिवेदन
वह राजरानी मुनिवरको वचनध्वनिकी ओर कान देकर विचारने लगी कि क्या मेरे ये दोनों शिशु (पुत्र-पुत्री ) मूर्छा के वश निस्तन्त्र पड़े हैं ? ऐसा चिन्तनकर रानीने अपने हाथों को आगे बढ़ाया और उन दोनोंको आलिंगनकर अपनी गोद में बिठा लिया। मुनिने अपनी ज्ञानदृष्टि सब कुछ देख लिया । रानीने उनसे पूछा कि तुमने क्या जाना समझा है । तब हमने अपना समस्त जातिस्मरण कह सुनाया और यह भी कहा कि मुनिराज कोई असत्य काव्यकी रचना थोड़े ही करते हैं ? हम ही वे राजाके पूर्वज रानी चन्द्रमती और राजा यशोधर हैं । हम ही वे थलचर,
मयूर और श्वान हुए थे, फिर हम ही नकुल और सर्प हुए थे, हम ही सिप्रा नदोके जलचर मत्स्य और सुंसुमार हुए, हम दोनों ही फिर अज हुए व तत्पश्चात् अज और महिष हुए, हम ही कुक्कुट पक्षी हुए और तत्पश्चात् तुम्हारे पुत्र-पुत्री हुए हैं। अपने पुत्रोंके स्नेहमें तृष्णातुर हुई है माता, तू यह समझ ले कि तू इस जन्मकी तो हमारी माता है, किन्तु हमारे पूर्वजन्मको पुत्र वधू है । इसके पश्चात् मुनिके चरणकमलों में पुंजीभूत हुए हम सबको राजाने विसर्जित कर दिया । नगरमें आकर हम राजप्रासादमें बैठे थे, तभी कल्याणमित्र ने आकर हमसे प्रिय वचन कहे - हे राजकुमार, तुम्हारे पिता आज प्रव्रज्या लेकर चले गये, अब तुम ही इस सप्तांग राज्यका परिपालन करो । यह सुनकर इसपर जन्म-जन्मान्तरके भय और क्लेशसे छिन्न हुए मैंने हँसकर कहा- वे राजा, जो आज प्रव्रजित हुए हैं, पूर्व में मेरे ही नयनानन्ददायी प्रिय पुत्र थे और मैंने हो उन्हें इस राज्यपर बैठाया था। अब में ही उनका चन्द्रमुख पुत्र हुआ हूँ । इस प्रकार देवने मुझे अच्छी शिक्षा दी है ॥ ५ ॥
६. कल्याणमित्र और राजकुमारका संवाद
तो अब मैं इस देन लेनकी परिपाटीका उल्लंघनकर पर्वतकी गुफा में जाकर रहूँगा । मैं इस मोह जालरूपी सघन मुखावरणको हटाकर तपरूपी लक्ष्मीका मुख देखना चाहता हूँ । इसपर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org