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________________ २. ५७. १०] हिन्दी अनुवाद विजयलक्ष्मी तुम्हारे हृदय में बास करे। शत्रु त्रस्त होकर तुम्हारे चरणोंमें नमन करे तथा इस विशाल महिमण्डलपर तुम्हारा यश भ्रमण करे। यह सुनकर मैंने अपना सिर धुना व मनमें विचारकर पुनः कहा-हे पृथ्वीके समान धीर जननी, तू ने जो कुछ कहा वह युक्त नहीं है। हिंसाचारी अधिवक्ता, कर्ता और नेता घोर मायाचारी हैं, शोककारी हैं व चाण्डाल हैं। जो शास्त्र मलिन कार्यका हेतु है वह तेजधारासे युक्त खड्गके समान है । और जो ढीठ, निकृष्ट, दपिष्ठ व पापिष्ठ लोग भयाकुल पशुओंको बाँधते हैं, रूंधते हैं, मारते और ध्वस्त करते हैं और फिर उनका मांस चखते और खाते हैं तथा सुराका पान करते हैं और फिर घूमते हैं, नाचते हैं, बाजा बजाते और गाते हैं वे क्रमशः मलिन नरकमें जाते दिखाई देते हैं। वे पहले प्रथम नरक रत्नप्रभामें फिर दूसरे शर्कराप्रभामें, तृतीय बालुकाप्रभा, चतुर्थ पंकप्रभा, पंचम धूम्रप्रभा, छठे तमप्रभा और सातवें तमतमप्रभा, इन सात नरकोंमें उत्पन्न होते हैं ॥१६।। १७. नरकसे निकले जीवोंको दुर्दशा नरकमें अपनी आयु पूरी कर वहाँसे निकलनेपर वे पापी जीव भील होते हैं, गंगे व अस्पष्टभाषो, पंगुल, लूले, बहरे, अन्धे, मट्ठे होते हैं । वे काने, कानीन (कन्यापुत्र), धनहीन, दीन, दुःखी और बलक्षीण होते हैं । वे निकम्मे, गृहहीन, कान्तिहीन व कुख्यात तथा नेत्रहीन, निष्प्राण, चाण्डाल और नीच होते हैं। वे डोम, कलाल, व मत्स्यजीवी-मछुए तथा बड़ी दाढ़ोंसे युक्त कोल ( सुअर ), सिंह और शार्दूल होते हैं । वे विकराल, सींगवाले तथा नुकीले नखवाले हिंसक पशु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001841
Book TitleJasahar Chariu
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorParshuram Lakshman Vaidya, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages320
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size22 MB
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