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सन्धि २ यशोधर-चन्द्रमति-भवान्तर
जो नित्य ही तीर्थंकरोंके चरणकमलोंको भक्तिपूर्वक नमन करता है, धर्म, अर्थ और कामके त्रिवर्गमें कुशल होता हुआ जैनागमोंके अर्थका गम्भीरतासे चिन्तन करता है एवं चतुर-बुद्धि होता हुआ मन-वचन-कायपूर्वक साधुओंको आहार, औषधि, अभय और शास्त्र इन चार प्रकारका दान देता है वह श्रीमान् नन्न अपने पुत्रोंसहित इस भूतलपर आनन्द करे।
१. यशोधरको शृंगार-लीला
यशोधर यौधेय देशके राजा मारिदत्तसे कहते हैं कि मैं कामासक्त, रतिका लोलुप, प्रेमके परवश और मदोन्मत्त होता हुआ अपनी स्त्रियोंमें उसी प्रकार अनुरक्त रहने लगा जैसे वनहस्तिनियोंके बीच वनगजेन्द्र ।
__ मैं अपनी स्वच्छमती, हंसगति और शुद्धसतो अभयमती नामक प्रिय पत्नीके प्रेममें ऐसा आसक्त हुआ कि विलासमें थोड़ी भी शिथिलता आनेमें मुझे दीर्घकालीन प्रवास जैसा दुःख होता था व नेत्रोंके निमेष-मात्र कालका विरह कष्टदायी हो जाता था। बस, में अपने इसी विलासकार्यमें मग्न रहने लगा, भले ही महीपतियों द्वारा पूज्य राज्यमें आग लग जाये या उसपर वज्र आ पड़े। मैंने अपनी राज्यलक्ष्मीको अनेक गुणोंसे युक्त एवं जय व यशके धाम, संकोच व परम राज्यश्रीयुक्त अपने यशःपति नामक पुत्रके अधीन कर दिया और उसीको विजयी होनेका आशीर्वाद देकर नृपशासनके प्रतीक राज्यसिंहासनपर विराजमान करा दिया व समस्त भूमि उसोको सौंप दो । अपना यह इष्ट कार्य करके में बढ़ते हुए स्नेहके साथ अपनी प्रिय पत्नीके गृहको ओर देखता, वहीं जाता, उसीके साथ निवास करता, विलास करता, उपभोग करता और क्रीड़ा करता। अपनी उस उज्ज्वल, पतली, श्यामल, कोमल और सुललित प्रिय महिलाके साथ वनक्रोडाको जाता, और उसके साथ होनेसे वह वनचरोंसे भयंकर वनवास भी मुझे सन्तोषदायक एवं
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