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बादशानुप्रेक्षाधिकारः]
[२१ दुःखभयान्येव मीना मत्स्यास्त एव प्रचुराः प्रभूता यस्मिन् स दुःखभयमीनप्रचुरस्तस्मिन् संसारमहार्णवे परमघोरे सुष्ठ रोद्रे जन्तु वो यस्मान्निमज्जति प्रविशति तत्सर्व कर्मास्रवहेतुकं कर्मादाननिमित्तमिति ॥७२६॥ के आस्रवा इत्याशंकायामाह
रागो दोसो मोहो इंदियसण्णा य गार कसाया।
मणवयणकायसहिदा दु आसवा होति कम्मस्स ॥७३०॥ रागद्वेषमोहपंचेन्द्रियाहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः ऋद्धिगौरवरसगौरवसात गौरवकषायाश्व मनोवचनकायसहिता एवं सर्व एते कर्मण आस्रवा भवन्ति-कर्माण्ये तैरागच्छन्तीति ।।७३०॥
रागादीन् विवेचयन्नाह
रंजेवि असुहकुणपे रागो दोसो वि दूसदी णिच्चं ।
मोहो वि महारिवु जं णियदं मोहदि सब्भावं ।।७३१॥ रागो जीवं कुणपे वस्तुनि रंजयति-कुत्सिते द्रव्येऽनुराग कारयति रागः । द्वेषोऽपि शोभनमपि । द्वेष्टि-सम्यग्दर्शनादिषु द्वेषं कारयति । नित्यं सर्वकालं। मोहोऽपि महारिपुर्महावैरी यस्मान्नियतं निश्चयेन मोहयति सदभावं-जीवस्य परमार्थरूपं तिरयतीति ।।७३१।। यत एवंभूतो मोहोऽतस्तं कुत्सयन्नाह
घिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो।
ण विबुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं ।।७३२।। . आचारवृत्ति-दुःख और भय रूप ही जिसमें बहुत से मत्स्य भरे हुए हैं ऐसे इस भयंकर संसार रूपी समुद्र में यह जीव जिस कारण से डूब रहा है वह सब कर्मास्रव का ही निमित्त है।
वे आस्रव कौन-कौन हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-राग, द्वेष, मोह, इन्द्रियाँ, संज्ञायें. गौरव और कषाय तथा मन, वचन, काय ये कर्म के आस्रव होते हैं ।।७३०॥
प्राचारवृत्ति-राग, द्वेष, मोह, पाँच इन्द्रियाँ, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ये चार संज्ञायें, रसगौरव,ऋद्धिगौरव और सात गौरव ये तीन गौरव और कषाय तथा मन-वचन-काय इन सभी के द्वारा कर्मों का आगमन होता है । अतः ये आस्रव कहलाते हैं।
रागादि का विवेचन करते हैं
गाथार्थ-राग अशुभ-कुत्सित में अनुरक्त करता है। द्वेष भी नित्य ही अप्रीति कराता है। मोह भी महाशत्रु है जोकि निश्चित रूप से सत्पदार्थ में मढ़ कर देता है। ॥७३१॥
प्राचारवृत्ति-राग जीव को निन्द्य द्रव्य में भी अनुराग कराता है, द्वेष भी हमेशा प्रशस्त सम्यग्दर्शन आदि मे द्वेष कराता है और मोह भी महावैरी है कि जो निश्चय से जीव के परमार्थ रूम को तिरोहित कर देता है, ढक देता है।
यह मोह इस प्रकार का है, अतः इसकी निन्दा करते हुए आचार्य कहते हैं
गाथार्थ-मोह को धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! कि जिस हृदय में स्थित मोह के द्वारा मोहित होता हुआ यह जीव हित रूप, शिव सुख का हेतु, मोक्षमार्ग रूप ऐसे जिन-वचन
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