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________________ १२ ] [ मूलाचारे सहकत्र वासोदभवं दुःखं चाऽपि, रोगान् कासश्वासछदिकुष्ठव्याध्यादिजनितवेदनाश्चाप्नवंतीति संबंधः ॥७०८॥ तथा जायंतो य मरंतो जलथलखयरेसु तिरियणिरएसु। माणुस्से देवत्त दुक्खसहस्साणि पप्पोदि ॥७०६॥ जे भोगा खलु केई देवा माणुस्सिया य अणुभूदा। दुक्खं च णतखुत्तो णिरिए तिरिएसु जोणीसु ॥७१०॥ संजोगविप्पयोगा लाहालाहं सुहं च दुक्खं च । संसारे अणुभूदा माणं च तहावमाणं च ॥७११॥ तत्र संसारे जायमानो म्रियमाणश्च जलचरेषु स्थलचरेषु खचरेषु च मध्ये तिर्यक्षु नरकेषु च दुःखसहस्राणि प्राप्नोति, मनुष्यत्वे देवत्वे च पूर्वोक्तानि दुःखसहस्राणि प्राप्नोतीति सम्बन्धः ।।७०६।। तथा ये केचन भोगा देवा मानुषाश्चानुभूताः सेवितास्तेषु भोगेषु अनंतवारान् दुःखं च प्राप्तं, नरकेषु तिर्यग्योनिषु च दुःखमनंतवारान् प्राप्तमिति ॥७१०॥ तथाअस्मिन् संसारे जीवेन संयोगा इष्टसमागमाः, विप्रयोगा अनिष्टसमागमाः, स्वेष्टवस्तुनो लाभ अप्रिय–अनिष्ट के साथ एकत्र रहने से अनिष्ट संयोगज दुःख होता है । खाँसी, श्वास, छर्दि, कुष्ठ, आदि रोगों से उत्पन्न हुई महावेदनाएँ भी जीवों को प्राप्त होती रहती हैं अतः यह संसार दुःखमय उसी प्रकार से और भी दुःखों को दिखाते हैं गाथार्थ-जलचर, थलचर और नभचर में, तिथंचों में, नरकों में, मनुष्य योनि में और देवपर्याय में जन्म लेता तथा मरण करता हुआ यह जीव हजारों दुःखों को प्राप्त करता है ।।७०६।। वास्तव में जो कुछ भी देवों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों का अनुभव किया है वे भोग नरक और तिर्यंच योनियों में अनन्त बार दुःख देते हैं ॥७१०।। संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान इन सबका संसार में मैंने अनुभव किया है ॥७११॥ आचारवत्ति-इस संसार में जन्म लेते हुए और मरण करते हुए जीव जलचर,थलचर और नभचरों में, तिर्यंचों में तथा नरकों में हजारों दुःखों को प्राप्त करते हैं। वैसे ही मनुष्यपर्याय और देवपर्याय में भी हजारों दुःखों का अनुभव करते हैं। जो कुछ भी भोग देवगति और मनुष्यगति के हैं उनका इस जीव ने अनुभव किया है, पूनः भोगों के फलस्वरूप नरक और तिर्यंच योनियों में इसने अनन्त बार दुःखों का अनुभव किया है। इस संसार में जीव ने इष्ट समागम, अनिष्ट समागम, इष्ट वस्तु का लाभ व अलाभ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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