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________________ ४०० ज्ञात्वेति कुर्वन्तु जनाः सुधर्म सदैहिकामष्मिकसौख्यकामाः । देवार्चनादानतपोव्रताद्यैर्धान्यं न लभ्यं कृषिमन्तरेण ।। ६४ ।। खण्डेलान्वयमण्डनेन्दुवदन त्वं पद्मसिंहाख्य भो, हेमाद्यस्त्रिभिरंगजैगतिमितीमादिभिर्बन्धुभिः । भव्यांभोरुहखण्डवासरमणेश्चारित्रचूडामणेः सूरिश्रीजिनचन्द्रकस्य वचनान्नन्द्याश्चिरं भूतले ॥६५॥ शास्त्रं शस्त्रं पापवैरिक्षयेऽदः शास्त्र नेत्रं त्वन्तरार्थप्रदष्ठौ। शास्त्र पात्रं सर्वचंचद्गुणानां शास्त्रं तस्माद्यत्नतो रक्षणीयम् ॥ ६६ ॥ श्रुत्वा शास्त्रं पापशत्रु हिनस्ति श्रुत्वा शास्त्रं पुण्यमित्रं धिनोति । श्रुत्वा शास्त्र सद्विवेकं दधाति तस्माद्भव्यो यत्नतस्तद्धि पाति ॥ ६७॥ यावत्तिष्ठति भूतले सुरनदी रत्नाकरो भूधरः, कैलासः किल चक्रिकारितजद्वन्द्यज्ञचैत्यालयः। यावद्व्योम्नि शशाांकवासरमणी प्रस्फेटयन्तौ तम स्तावत्तिष्ठतु शास्त्रमेतदमलं सम्पद्यमानं बुधैः ।। ६८ ।। सूरिश्रीजिनचन्द्राह्रिस्मरणाधीनचेतसा। प्रशस्तिविहिता चासौ मीहाख्येन सुधीमता ।। ६६ ।। ऐसा जानकर ऐहलौकिक और पारलौकिक सुख के इच्छुक मनुष्य देवपूजा, दान, तप और व्रतादि के द्वारा उत्तम धर्म करें-पुण्योपार्जन करें, क्योंकि खेती के बिना धान्य-अनाज की प्राप्ति नहीं होती ॥६४॥ हे खण्डेलवंश के अलंकार ! चन्द्रवदन ! श्री पद्मसिंह ! तुम हेमा आदि तीनों पुत्रों तथा भीमा आदि चारों भाइयों के साथ, भव्य रूपी कमल-वन को विकसित करने के लिए सूर्य, चारित्रवडामणि भी आचार्य जिनचन्द्र के शुभाशीर्वचन से चिरकाल तक पृथ्वीतल परमानन्द का अनुभव करो ॥६५॥ यह शास्त्र पापरूपी शत्रुओं का क्षय करने में शस्त्र है, यह शास्त्र अन्तस्तत्त्व को देखने के लिए नेत्र है, तथा यह शास्त्र समस्त उत्तम गुणों का पात्र है, अतः यह शास्त्र यत्नपूर्वक रक्षा करने के योग्य है ॥६६।। चूंकि भव्य जीव शास्त्र को सुनकर पापरूप शत्रु को नष्ट करता है, शास्त्र सुनकर पुण्यरूपी मित्र को संतुष्ट करता है, और शास्त्र सुनकर उत्तम विवेक को धारण करता है इसलिए भव्य जीव यल से शास्त्र की रक्षा करता है ॥६॥ जब तक पृथ्वी तल पर गंगा नदी विद्यमान है, जब तक समुद्र विद्यमान है, जब तक चक्रवर्ती भरत के द्वारा निर्मापित जगत्पूज्य जिनचैत्यालयों से यक्त कैलास पर्वत विद्यमान है. और जब तक अन्धकार को नष्ट करनेवाले चन्द्र-सूर्य आकाश में विद्यमान हैं तब तक विद्वज्जनों द्वारा पठन-पाठन में आनेवाला यह निर्दोष शास्त्र विद्यमान रहे ॥६॥ जिसका चित्त आचार्य जिनचन्द्र के चरणों के स्मरणाधीन है उस मोहा नामक विद्वान् ने यह प्रशस्ति बनाई है ॥६६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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