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________________ प्स्यिधिकारः] [ ३७७ तुशब्दः सर्वविशेष गसंग्रहार्थः । तद्यथा, सातवेदनीय-स्त्रीवेद-मनुष्यगति-मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्यनाम्नामुत्कृष्टा स्थिति: पञ्चदशसागरोपमकोटीकोट्यः । षोडशकषायाणामुत्कृष्ट: स्थितिबन्धश्चत्वरिंशत्कोटीकोट्यः साग राणाम् । पुंवेद-हास्य-रति-देवगतिसमचतुरस्रसंस्थान-वज्रर्षभनाराचसंहनन-देवगतिप्रायोग्यानुपूयंप्रशस्तविहायोगति-स्थिरसुभगशुभसुस्वरादेययश:कोतिरुच्चैर्गोत्राणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धः दशसागरोपमकोटीकोट्यः । नपुंसकवेदारतिशोकभयजुगुप्सानरकगति-तिर्यग्गत्येकेन्द्रियपंचेन्द्रियजात्योदारिकवैक्रियिकतैजसकार्मणशरीर-हण्डसंस्थानौदारिकर्वक्रियिकांगोपांगासंप्राप्तसपाटिकासंहनन-वर्णरसगन्धस्पर्श-नरकगति-तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्यागुरुलघूपघातपरघातोच्छ्वासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगतित्रसस्थावरबादरपर्याप्तप्रत्येकशरीरास्थिराशुभदुर्भगदुःस्वरानादेयायशस्कीर्तिनाम्नांनीचर्गोत्राणामुत्कृष्टः स्थितिबन्धोविंशतिसागरोपमकोटीकोट्यः । नरकदेवायुषोस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कृष्टा स्थिति: । तियंङ मनुष्यायुषो उत्कृष्टा स्थितिस्त्रीणि पल्योपमानि । द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिवामनसंस्थानकीलकसंहननसूक्ष्मापर्याप्तसाधारणनाम्नामुत्कृष्टस्थितिः अष्टादशसागरोपमकोटीकोटयः । आहारशरीरांगोपांगतीर्थकरनाम्नामुत्कृष्टस्थिति: अन्त:कोटीकोट्यः । न्यग्रोधसंस्थानवचनाराचसंहननयोरुत्कृष्टस्थितिज्दशसागरोमपकोटीकोट्यः । स्वातिसंस्थाननाराचसंहननयोरुत्कृष्टा स्थिति: चतुर्दशसागरोपमकोटीकोट्यः । कुब्जकसंस्थानार्द्धनाराचसंहननयोरुत्कृष्टा स्थितिः षोडश गाथा में जो 'तु' शब्द है वह सर्व विशेषों को ग्रहण कर लेता है, अतः इन कर्मों के उत्तर भेदों को उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं साता वेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति,मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्व्य की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागर है। सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है । पुंवेद, हास्य, रति, देवगति,समचतुरस्रसंस्थान,वज्रवृषभनाराचसंहनन, देवगति-प्रायोग्यानुपूर्व्य, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर, सुभग, शुभ, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति और उच्चगोत्र-इनकी उत्कृष्टस्थिति दस कोडाकोड़ी सागर है। नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक अंगोपांग, असंप्राप्तसपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यंचगतिप्रयोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीति और नीचगोत्र-का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोड़ाकोड़ो सागर है। नरकायु व देवायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। तिर्यंचायु और मनुष्यायु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्यप्रमाण है । द्वीन्द्रियजाति त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वामनसंस्थान, कोलक संहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोड़ाकोड़ी सागर है। आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर की उत्कृष्ट स्थिति अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। न्यग्रोध संस्थान और वज्रनाराचसंहनन की उत्कृष्ट स्थिति बारह कोड़ाकोड़ो सागर है। तथा स्वाति संस्थान और नाराच संहनन की उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोड़ाकोड़ी सागर है। कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचसंहनन की उत्कृष्ट स्थिति सोलह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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