SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ मूलाधारे मावण्वन्तीत्यप्रत्याख्यानावरणाः । प्रत्याख्यानं संयममावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः । अथवा येषु सत्सु 'प्रत्याख्यानसंयमादिसंयमासंयमादिरहितं सम्यक्त्वं भवतीति अप्रत्याख्यानसंज्ञाः क्रोधमानमायालोभास्तादत्तिाच्छन्द्यमिति । तथा येषु सत्सु प्रत्याख्यानं सम्यक्त्वसहितः संयमासंयमो भवति क्रोधमानमायालोभाः प्रत्याख्यानसंज्ञा भवन्त्यत्रापि तादात्ताच्छामिति । तथा संयमेन सहकीभय संज्वलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्विति वा संज्वलनाः क्रोधमानमायालोमा इति । आद्याः सम्यवस्वसंघमघातिनः, द्वितीया देशसंयमघातिनः, तृतीयाः संयमघातिनः, चतुर्था: स्थानातवंयमचालित इति ॥१२॥४॥ नोकषायभेदान्प्रतिपादबन्नाह इत्यीपुरिसणउंसपवेदा हास रवि अरदि सोगोय। भवमेतो य दुगंछा नवविह तह णोफसायभेयं तु ॥१२३५॥ स्तृणाति छादयति दोषरात्मानं परं च स्त्री। पुरौ प्रकृष्टे कर्मणि शेते प्रमादयति तानि करोतीति वा पुरुषः। न पुमान् न स्त्री नपुंसकम् । येषां पुद्गलस्कन्धानामुदयेन पुरुष आकांक्षोत्पद्यते तेषां स्त्रीवेद इति जो किंचित् भी संयम न होने दें, उस पर आवरण करें वे अप्रत्याख्यानावरण कहलाती हैं और जो प्रत्याख्यान-संयम पर आवरण करती हैं वे प्रत्याख्यान कषाये हैं । अथवा जिनके रहने पर प्रत्याख्यान-संयम तथा संयमासंयम आदि रहित सम्यक्त्व होता है उनको अप्रत्याख्यान संज्ञा है। इनके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं। जिसके होने पर प्रत्याख्यानसम्यक्त्व सहित संयमासंयम होता है उसकी प्रत्याख्यानावरण संज्ञा है। अर्थात् यह प्रत्याख्यानपूर्ण संयम का आवरण करती है। इसके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं। जो संयम के साथ एकमय होकर सम्यक्प्रकार से ज्वलित-प्रकाशित होती हैं अथवा जिनके रहने पर भी संयम विद्यमान रहता है उसे संज्वलन कहते हैं। इनके भी क्रोध, मान, माया और लोभ चार भेद होते हैं। इस तरह ये सोलह कषायें हैं। आदि की अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ कषायें सम्यक्त्व संयम का घात करती सिरी मास्याख्यानावरण कषायें देशसंयम का बात करती है। तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषायें संयम का घात करनेवाली हैं और चौथी संज्वलन कषायें यथाख्यातसंयम का घात करने बाली हैं। मोकचाम-भेदों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा से नोकषाय के नौ भेद हो जाते हैं ॥१२३५॥ प्राचारवृत्ति-जो दोषों द्वारा स्वयं को और पर को आच्छादित करती है वह स्त्री है । पुरु अर्थात् प्रकृष्ट कर्म में जो सोता है अर्थात् उन गुणों में प्रमाद करता है वह पुरुष है। जो न पुरुष है और न स्त्री है वह नपुंसक है। जिन पुद्गल स्कन्धों के उदय से पुरुष के प्रति आकांक्षा होती है उन पुद्गलस्कन्धों १.प्रत्याख्यानसंयमासंयमविरहितं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy