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पर्याप्त्यधिकार1
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क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वम, उत्कृष्ट तो योजनपथक्त्वं जानाति । कालतो जघन्येन द्वौ वा श्रीवा भवान, उत्कृष्टत. सप्ताष्टो भवान् जानाति । भावतो जघन्येनोत्कृष्टेन चासंख्यातभावान जानाति किं तु जघन्यादुत्कृष्टानां साधिकत्वम् इति । विपुलमतिद्रव्यतो जघन्येनैकसामयिकी चक्षरिन्द्रियनिर्जरां जानाति उत्कृष्टेनकसमयप्रबद्धकर्मद्रव्यस्य मनोवर्गणाया अनन्तभागेन भागे हत एकखण्डं जानाति । क्षेत्रतो जघन्येन योजनपथक्त्वं साधिकं जानाति । उत्कृष्टतो मनुष्यक्षेत्र जानाति । कालतो जघन्येन सप्ताष्टभवान् जानात्युकृष्टतोऽसंख्यातान् एतस्य भवान् जानाति । भावतो जघन्येनासंख्यातपर्यायान् जानाति, उ कृष्टतस्ततोऽधिकान् पर्यायान् जानाति । मनःपर्ययस्यावरणं मनःपर्ययावरणम् । केवलज्ञानमसहायमन्यनिरपेक्षं, तस्यावरणं केवलज्ञानावरणम् । एवं पंचप्रकारमावरणं; ज्ञानावारकः पुद्गलस्कन्धनिचयः प्रवाहस्वरूपेणानादिबद्धः ज्ञानावरणमिति । ॥१२३०॥ दर्शनावरणप्रकृतिभेदानाह
णिद्दाणिद्दा पयलापयला तह थीणगिद्धि णिद्दा य। पयला चक्खु अचक्खू ओहीणं केवलस्सेदं ॥१२३१॥
शरीर की निर्जरा प्रमाण द्रव्य को जान लेता है और उत्कृष्ट से एक समय में होनेवाली चक्षुइन्द्रिय की निर्जरा प्रमाण द्रव्य को जान लेता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से कोश पृथक्त्व-तीन कोश से लेकर सात-आठ कोश तक को जान लेता है। उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व को जान लेता है। काल की अपेक्षा जघन्य से दो अथवा तीन भवों को जान लेता है तथा उत्कृष्ट से सात-आठ भवों को जान लेता है । भाव की अपेक्षा जघन्य से असंख्यात भावों को जानता है और उत्कृष्ट से . भी असंख्यात भावों को जानता है । जघन्य की अपेक्षा उत्कृष्ट में अधिक भाव होते हैं।
विपुलमति द्रव्य की अपेक्षा जघन्य से एक समय में होनेवाले चक्षु-इन्द्रिय की निर्जरा द्रव्य को जानता है, प्रमाण उत्कृष्ट से एक समयप्रबद्ध प्रमाण कर्मद्रव्य में मनोवर्गणा के अनन्तवें भाग से भाग देने पर जो द्रव्य आया उसके एक खण्ड को जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से कुछ अधिक योजन पृथक्त्व को जानता है और उत्कृष्ट से मनुष्यक्षेत्र को जानता है। काल की अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को जानता है और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है । भाव की अपेक्षा जघन्य से असंख्यात पर्यायों को जानता है और उत्कृष्ट से उससे अधिक असंख्यात पर्यायों को जानता है । इस मनःपर्ययज्ञान का जो आवरण है वह मनःपर्ययज्ञानावरण
केवल-असहाय अर्थात् अन्य की अपेक्षा से रहित जो ज्ञान है वह केवलज्ञान है। उसके आवरण का नाम केवलज्ञानावरण है।
इस तरह पाँच प्रकार का आवरण होता है । यह ज्ञान के ऊपर आवरण डालने वाला पुद्गलस्कन्धों का समूह प्रवाहरूप से अनादि काल से जीव के साथ बद्ध है इसलिए यह ज्ञानावरण सार्थक नामवाला है।
दर्शनावरण की प्रकृति के भेदों को कहते हैं--
गाथार्थ-निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि, निद्रा और प्रचला तथा चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल ये चार दर्शनावरण, ऐसे नौ भेद दर्शनावरण के हैं ।।१२३१॥
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