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________________ ३४८ ] दर्शनज्ञानचरणानामुपलम्भात् । निर्णीतस्यार्थस्य कालान्तरेष्वविस्मृतिर्धारणा, यस्माज्ज्ञानात्कालान्तरेऽप्यविस्मरणहेतुभूतो जीवे संस्कार उत्पद्यते तज्ज्ञानं धारणा । न चैतेषामवग्रहादीनां चतुर्णां सर्वत्र क्रमेणैवोत्पत्तिस्तथानुपलंभात् ततः क्वचिदवग्रह एव क्वचिदवग्रहो धारणा च क्वचिदवग्रह ईहा च क्वचिदवग्रहेहावायधारणा इति । तत्र बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्त वसे तरभेदेनैकैको द्वादशविधः । तत्र बहूनामेकवारेण ग्रहणं बह्ववग्रहः युगपत्पंचांगुलिग्रहणवत् । एकस्यैवोपलम्भ [ एकावग्रहः ] एकाङगुलिग्रहणवत् । बहुप्रकाराणां हस्त्यश्वगोमहिष्यादीनां नानाजातीनां ग्रहणं बहुविधावग्रहः । एकजातिग्रहणमेक विधावग्रहः । आशु ग्रहणं क्षिप्रावग्रहः । चिरकालग्रहणमक्षिप्रावग्रहः । अभिमुखार्थग्रहणं निःसृतावग्रहः । अनभिमुखार्थग्रहणमनिःसृतावग्रहः । अथवोपमानोपमेयभावेन ग्रहणं निःसृतावग्रहस्तद्विपरीतोऽन्यथा, यथा कमलदलनेत्रात्तद्विपरीतो वा । नियमितगुणविशिष्टार्थग्रहणमुक्तावग्रहो, यथा चक्षुरिन्द्रियेण धवलग्रहणं अनियमितगुणविशिष्टद्रव्यग्रहणमनुक्तावग्रहः यथा चक्षुरिन्द्रियेण द्रव्यान्तरस्य । निर्णयेन ग्रहणं ध्रुवावग्रहस्तद्विपरीतऽध्र वावग्रहः । एवमीहा [मूलाचारे अवाय है । जैसे यह भव्य ही है, अभव्य नहीं है क्योंकि इसमें भव्यत्व के अविनाभावी सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का सद्भाव है । यह निश्चय ज्ञान अवाय है । अवाय से निर्णीत पदार्थ को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है । जिस ज्ञान से कालान्तर में भी अविस्मरण में कारणभूत ऐसा संस्कार जीव में उत्पन्न हो जाता है वह ज्ञान धारणा है । इन अवग्रह आदि चारों ज्ञानों की सभी जीवों में क्रमसे उत्पत्ति होती ही हो ऐसा नियम नहीं देखा जाता है। इसलिए किसी जीव के अवग्रह ही होता है, किसी के अवग्रह और धारणा हो जाते हैं, किसी में अवग्रह और ईहा हो जाते हैं और किसी जीव के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारण ये चारों ही होते हैं । अवग्रह के विषय बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव ये छह भेद तथा उनसे उल्टे एक, एकविध अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव ये छह ऐसे बारह भेद होते हैं । हा आदि एक-एक के भी ये बारह भेद होते हैं । बहुत से पदार्थों का एक बार में ग्रहण करना बहुअवग्रह है; जैसे एक साथ पाँचों अंगुलियों को ग्रहण करना । बहु प्रकार के पदार्थों का अर्थात् हाथी, घोड़ा, गाय, भैंस आदि अनेक जातिवाले जीवों का ग्रहण करना बहुविध अवग्रह है। एक वस्तु को ग्रहण करना एक अवग्रह है और एक जाति के जीवों का ग्रहण करना एकविध अवग्रह है । शीघ्र ग्रहण करना क्षिप्र अवग्रह है, चिरकाल से ग्रहण करना अक्षिप्र अवग्रह है । अभिमुख – सन्मुख पदार्थ को ग्रहण करना निःसृत अवग्रह है, अनभिमुख पदार्थ का ग्रहण अनिःसृत अवग्रह है । अथवा उपमान और उपमेय भाव रूप से ग्रहण करना निःसृत अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अनिःसृत अवग्रह । जैसे कि कमलदलनेत्रा - कमल के दल के समान जिसके नेत्र हैं ऐसी स्त्री को कमलदलनेत्रा कहते हैं । यहाँ कमल उपमान है और नेत्र उपमेय । सुन्दर नेत्रवाली स्त्री को देखकर उपमान उपमेय भाव से उसे कमलदलनेत्रा कहना यह निःसृत अवग्रह है । इससे विपरीत - बिना देखे ही ज्ञान हो जाना अनिःसृत अवग्रह है । नियमित गुणों से विशिष्ट अर्थ को ग्रहण करना उक्त अवग्रह है; जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा धवल पदार्थ का ग्रहण । अनियमित गुण से विशिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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