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________________ [ मूलाचारे ज्ञानावरणस्य पंच प्रकृतयः, दर्शनावरणस्य नव प्रकृतयः, वेदनीयस्य द्वे प्रकृती, मोहनीयस्याष्टाविंशतिः प्रकृतयः, आयुषश्चतस्रः प्रकृतयः, नाम्नो द्विचत्वारिंशत्प्रकृतयः, गोत्रस्य द्वे प्रकृती, अन्तरायस्य पंच प्रकृतयः । अथवा पंचप्रकृतयो ज्ञानावरणमित्येवमादि । इत्येवं नामविनवत्यपेक्षयाऽष्टचत्वारिंशच्छतमत्तरप्रकृतयो भवन्तीति वेदितव्यम् ।।१२२६॥ के ते ज्ञानावरणस्य पंच भेदा इत्याशंकायामाह आभिणिबोहियसुदओहोमणपज्जयकेवलाणं च । आवरणं णाणाणं णादव्वं सव्वमेदाणं ॥१२३०॥ अभिमुखो नियतो बोध अभिनिबोधः, स्थलवर्तमानानन्तरिता अर्था अभिमुखाश्चक्षुरिद्रिये रूपं नियमितं श्रोत्रेन्द्रिये शब्द: घ्राणेन्द्रिये गन्धः रसनेन्द्रिये रसः स्पर्शनेन्द्रिये स्पर्शः नोइन्द्रिये दृष्टश्रुतानुभूता नियमिता:, अभिमुखेष नियमितेष्वर्थेष यो बोधः स अभिनिबोधः । अभिनिबोध एवाभिनिबोधकं ज्ञानमत्र विशेषस्य' सामान्यरूपत्वात्। आभिनिबोधिक विशेषेणान्येभ्योऽवच्छेदकमतो न पुनरुक्तदोषः। श्रतं मतिपूर्वमिन्द्रियगृहीतार्थात्पृथग्भूतमर्थग्रहणं यथा घटशब्दाद् घटार्थप्रतिपत्तिधं मारुचाग्न्युपलम्भ इति । 'अवधानादवधिः आचारवृत्ति-ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ हैं, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ हैं, वेदनीय को दो प्रकृतियाँ हैं, मोहनीय को अट्ठाईस प्रकृतियाँ है, आयु की चार प्रकृतियाँ हैं, नामकर्म को व्यालीस प्रकृतियाँ हैं, गोत्र की दो प्रकृतियाँ हैं, और अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ हैं । अथवा पाँच प्रकृतिरूप ज्ञानावरण है इत्यादि रूप से समझ लेना । इस प्रकार से नामकर्म की तिरानवें प्रकृतियों को अपेक्षा करने से एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं । ज्ञानावरण के वे पाँच भेद कौन हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन सर्वभेदरूप ज्ञानों का आवरण जानना ।।१२३०॥ प्राचारवत्ति-अभिमुख और नियत का बोध-ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है। स्थल वर्तमान और अनन्तरित-योग्य क्षेत्र में अवस्थित पदार्थों को अभिमुख कहते हैं और जिसजिस इन्द्रिय का जो विषय नियमित है-निश्चित है उसे नियत कहते हैं। जैसे चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप नियमित है, श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द, घ्राणेन्द्रिय का गन्ध, रसनेन्द्रिय का रस, स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श और नोइन्द्रिय के देखे-सुने और अनुभव में आये हुए पदार्थ नियमित हैं। इन आभिमुख और नियमित पदार्थों का जो ज्ञान है वह अभिनिबोध है। यह अभिनिबोध ही आभिनिबोधिक ज्ञान है । यहाँ पर विशेष को सामान्यरूप कहा है। अर्थात् आभिनिबोधिक ज्ञान विशेष होने से अन्य ज्ञानों से अपने को अवच्छेदक-पृथक् करनेवाला है इसलिए पुनरुक्त दोष नहीं आता है। इसे ही मतिज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और यह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये विषय से भिन्न विषय को ग्रहण करता है। जैसे घट शब्द से घट अर्थ का ज्ञान होना और धूम से अग्नि १.क नियमितो। २. क विशेष्यं तस्य। ३.क अवाग्धानादवधिः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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