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________________ पर्याप्त्यधिकारः] [ ३३१ एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्ध हि अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥१२०६॥ एकनिगोदशरीरे गडच्यादिवनस्पतिसाधारणकाये जीवा अनन्तकायिकाद्रव्यप्रमाणत: संख्यया दृष्टाः जिनः प्रतिपादिताः सिद्धरनन्तगुणा: सर्वेणाप्यतीतकालेन । एकनिगोदशरीरे ये तिष्ठति ते सिद्धरनन्तगुणा इत्यवगाहावगाहनमाहात्म्यादसंख्यातप्रदेशे लोके कथमनन्तास्तिष्ठन्तीति नाशंकनीयमिति,एवं सर्वासु मार्गणास्वस्तित्वपूर्वक क्षेत्रप्रमाणं द्रष्टव्यं स्पर्शनमप्यत्रापि द्रष्टव्यं यतोऽतीतविषयं स्पर्शनं वर्तमानविषयं क्षेत्रमिति ।।१२०६॥ द्रव्यप्रमाणं निरूपयन्नाह एइंदिया अणंता वणप्फदीकायिगा णिगोदेसु । पुढवी आऊ तेऊ वाऊ लोया असंखिज्जा ॥१२०७॥ निगोदेषु ये वनस्पतिकायिकैकेन्द्रिया जीवास्तेनंतास्तथा पृथिवीकायिका अप्कायिकास्तेजस्कायिका वायुकायिकाः सर्व एते सूक्ष्मा: प्रत्येकमसंख्यातलोकप्रमाणा असंख्याता लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्मात्रा गाथार्थ-एकनिगोद शरीर में जीव द्रव्यप्रमाण से सभी अतीत काल के सिद्धों से अनन्तमुणे देखे गये हैं ।।१२०६॥ ___प्राचारवृत्ति-गुरच आदि वनस्पतिकायिक के साधारणकाय में एक निगोदजीव के शरीर में अनन्तकायिक जीव द्रव्यप्रमाणरूप संख्या से सभी अतीतकाल के सिद्धों से भी गणे हैं ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । अर्थात् भूतकाल में जो अनन्त जीव सिद्ध हो चुके हैं. उनसे भी अनन्तगुणे जीव एक निगोदिया जीव के शरीर में रहते हैं अर्थात् एक निगोदिया के शरीर में जो जीव रहते हैं वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। इसमें अवगाह्य और अवगाहक का ही माहात्म्य है, अर्थात् ये सूक्ष्म जीव स्वयं अवकाशग्रहण में योग्य या समर्थ हैं और दूसरे अनन्त जीवों को भी अवकाश देने में समर्थ हैं । इस माहात्म्य से ही बाधा नहीं आती है। असंख्यातप्रदेशी लोक में ये अनन्त जीव कैसे रहते हैं—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त अवगाह्य और अवगाहन की सामर्थ्य के माहात्म्य से ही ये अनन्त जीव असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाश में रह जाते हैं। इसी प्रकार से सभी मार्गणाओं में अस्तित्वपूर्वक क्षेत्रप्रमाण भी समझ लेना चाहिए। इसी तरह स्पर्शन को भी यहाँ जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि अतीत को विषय करनेवाला स्पर्शन है और वर्तमान को विषय करनेवाला क्षेत्र है। द्रव्यप्रमाण का निरूपण करते हैं गाथार्थ-निगोदों में वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव अनन्त हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाय जीव असंख्यात लोकप्रमाण हैं ॥१२०७॥ आचारवृत्ति-निगोदजीवों में जो वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हैं वे अनन्त हैं, तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक ये सभी सूक्ष्मजीव प्रत्येक असंख्यात लोकप्रमाण हैं । अर्थात् असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हैं उतने प्रमाण हैं। किन्तु ये www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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