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________________ | गलाचार प्रतिज्ञावाक्येन मूवितानुप्रेक्षानामान्याह--- प्रद्ध वमा रणभेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्म बोधि च चितेज्जो ॥६६४॥ अध्र वमनित्यम शाश्वतं । अश रणमत्राण । एक त्वमसहायत्वं हितीयस्याभावो न मे द्वितीयः । अन्यत्वं पृथक्त्वं शरीरादप्यन्योऽहमिति भावनं । संसार श्चतुर्गतिपरिभ्रमणं प्रदेशानामुद्वर्तन परिवर्तनं च। लोक वेत्रासनझल्लरीमृदंगसंस्थान । अशुभत्वमणुचित्वं सर्वदुःखस्वरूपं । आस्रवं कर्मागमद्वार मिथ्यात्वादिकं । संवर कर्मागमद्वारनिरोधनं सम्यक्त्वादिकं । निर्जरां कर्मनिर्गमनं । धर्म मुत्तमक्षमादिलक्षणं । बोधि सम्यक्त्वादिलामं चान्तकाले संन्यासेन प्राणत्यागं चिन्तयेत् । एवंप्रकारा द्वादशानुप्रेक्षा ध्यायेदिति ॥६६४॥ तासु मध्ये तावदनित्यताभेदमाह ठाणाणि आसणाणि य देवामुरइढिमणयसोक्खाई। मादुपिदुसयणसंवासदा य पोदो वि य अणिच्चा ॥६६५।। स्थानानि ग्रामनगरपत्तनदेशपर्वतनदीमटवादीनि, अथवा देवेन्द्र चक्रधरबलदेवस्थानानि अथवेक्ष्वाकुहरिवंशादिस्थानानि, तिष्ठन्ति सुखेन जीवा येषु तानि स्थानानि । आसन्ते सुखेन विशन्ति येषु तान्यासनानि राज्यानानि सिंहासनादीनि, अथवा अशनानि नानाप्रकारभोजनानि 'उत्तरत्राशनशब्देन चाशनादीनां ग्रहणात्, प्रतिज्ञावाक्य से सूचित अनुप्रेक्षाओं के नाम कहते हैं--- गाथार्थ- अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुभत्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और वोधि इनका चिन्तवन करे ॥६६४।। आचारवत्ति अध्रुव - अनित्य, अशाश्वत । अशरण-अरक्षा। एकत्व--असहायपना अर्थात् द्वितीय का अभाव होना, मेरा कोई दूसरा नहीं है, मैं अकेला हूँ ऐसा समझना । अन्यत्वपथकपना अर्थात् शरीर से भी मैं भिन्न हूँ ऐसी भावना। संसार-चतुर्गति का परिभ्रमण; आत्मा के प्रदेशों का उद्वर्तन परिवर्तन होना अर्थात् नाना शरीरों में प्रदेशों का संकुचित, विस्तृत होना । लोक-बेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के आकारवाला लोक है। अशुभत्व---अशुचिपना, सर्वदुःखस्वरूपता । आस्रव कमों के आने के द्वार, मिथ्यात्व आदि । संवर-कर्मों के आने के द्वार के निरोध करनेवाले सम्यक्त्व आदि । निर्जरा-कर्मों का निर्जीर्ण होना । धर्मउत्तमक्षमादिरूप । बोधि--- सम्यक्त्व का लाभ होना और अन्त काल में संन्यासपूर्वक प्राणत्याग करना । इस प्रकार से इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का ध्यान करे। उनमें से पहले अनित्य अनुप्रेक्षा को कहते हैं---- गाथार्थ-स्थान, आसन, देव, असुर तथा मनुष्यों के वैभव, सौख्य, माता-पिता-स्वजन का संवास तथा उनकी प्रीति ये भाव अनित्य हैं ॥६६५।। आचारवृत्ति - गाम, नगर, पत्तन, देश, पर्वत, नदी और मटंव आदि स्थान कहलाते है अथवा देवेन्द्र, चक्रवर्ती और बलदेव के पद स्थान संज्ञक हैं या इक्ष्वाकुवंश आदि स्थान हैं अर्थात् जिनमें जीव सुख से रहते हैं उन्हें स्थान कहते हैं । जिनमें सुख से प्रवेश करते हैं वे आसन हैं, वे राज्य के अंगभूत सिंहासन आदि हैं। अथवा अशन-नाना प्रकार के भोजन आदि ऐसा १. उत्तरत्रासन शब्देन वेत्रासनादीनां ग्रहणात् । क० द० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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