________________
पाप्यधिकार!]
[२८७
आणदपाणदकप्पे आरणकप्पे य अच्चुदे य तहा।
मणपडिचारा णियमा एदेसु य होंति जे देवा ॥११४४॥ आणदपाणदकप्पे-आनतप्राणतकल्पयोः, आरणकप्पे-आरणकल्पे, अच्चुदे य तहा -अच्युते च तथैव देव्योऽपि, मणपडिचारा-मनःप्रतीचारा:, णियमा-नियमान्निश्चयेन एदेसु य-एतेषु च, होतिभवन्ति, जे देवा-ये देवाः । एतयो आनतप्राणतकल्पयोरारणाच्युतकल्पयोर्देवा मनःप्रतीचारा मानसिककामाभिलाषप्राप्तसुखा: स्वांगनामनःसंकल्पमात्रादेव परमसुखमवाप्नुवन्तीति ॥११४४|| अथोत्तरेषा किंप्रकारं सुखमित्यक्त तन्निश्चयार्थमाह
तत्तो परं तु णियमा देवा खल होति णिप्पडीचारा।
सप्पडिचाहिं वि ते अणंतगुणसोक्खसंजुत्ता ॥११४५॥ तत्तो-ततस्तेभ्यो भवनाद्यच्युतान्तेभ्यः, परंतु-परत ऊर्च, णियमा–नियमान्निश्चयादसंदेहात् देवा-अहमिन्द्रादयः, खलु स्फुटं व्यक्तमेतत्प्रत्यक्षज्ञानिदृष्टमेतत्, होंति-भवन्ति, णिप्पडीचारा-निष्प्रतीचारा प्रतीचारान्निर्गता निष्प्रतीचारा: कामाग्निदाहविनिर्मुक्ताः। वनिताविषयपंचेन्द्रियसुखरहिताः। यद्यवं कि तेषां सुखमित्यांशंकायामाह-सप्पडिचारहि वि-सप्रतीचारेभ्योऽपि कायस्पर्शरूपशब्दमन:प्रवीचारेभ्योऽपि ते नववेयकादिकेऽहमिन्द्राः, अणंतगुगसोक्खसंजुत्ता-अनन्तगुणसौख्ययुक्ता, अनन्तो गुणो गुणकारो यस्य तदनन्तगुणं अनन्तगुणं च तत्सोख्यं चानन्तगुणसौख्यं स्वायत्तसर्वप्रदेशानन्दप्रीणनं तेन संयुक्ताः सहितास्तेभ्यो भवनाद्यच्युतान्तेभ्यः परेषु नवग्रंवेयकनवानुदिशपञ्चानुत्तरेषु ये देवास्ते निश्चयेनाप्रतीचाराः सप्रतीचारेभ्यो ऽनन्तगुणसंयुक्ताः, व्यक्तमेतत् प्रतीचारो हि वेदनाप्रतीकारस्तदभावे तेषां परमसुखमनवरतमिति ।।११४५।।
गाथार्थ-आनत प्राणत, तथा आरण-अच्युत कल्प में जो देव हैं वे नियम से मन से कामसुख का अनुभव करते हैं ॥११४४॥
आचारवृत्ति-आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में देव मानसिक काम की अभिलाषा से प्राप्त सुख का अनुभव करते हैं । अर्थात् यहाँ के देव अपनी देवांगनाओं के मन में संकल्प आने मात्र से हो परम सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
अब आगे के देवों में किसप्रकार का सुख है ऐसा पूछने पर उसका निश्चय करने के के लिए कहते हैं
गाथार्थ-उससे परे देव नियम से कामसेवन से रहित होते हैं। वे कामसेवन सुखवालों से भी अधिक अनन्तगुण सुख से संयुक्त होते हैं ।।११४५।।
आचारवृत्ति-भवनवासी से लेकर अच्युतपर्यन्त सोलहवें स्वर्ग के देवों के कामसुख को कहा है। इसके आगे नव ग्रैवेयक तथा नव अनुदिश तथा पाँच अनुत्तरों में जो देव हैं वे निश्चय से कामसेवन के सुख से रहित हैं । अर्थात् वे अहमिन्द्र कामाग्नि की दाह से विनिर्मुक्त हैं। फिर भी वे अनन्तगुणों से और अपने अधीन सभी आत्मप्रदेशों में उत्पन्न हुए आनन्द से संतृप्त रहते हैं, क्योंकि यह बात स्पष्ट ही है कि कामसेवन एक वेदना का प्रतीकार है, उसके अभाव में उन्हें सदा हो परमसुख रहता है। अर्थात् वहाँ देवांगनाएँ भी नहीं हैं और कामसुख की अभिलाषा भी नहीं है अतः वे स्वाधीन सुख से सुखी हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org