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________________ पर्याप्तत्यधिकारः ] [ २७५ संवगतं च कृत्वा धर्माधर्मास्तिकायागुरुलघुगुणान् प्रक्षिप्य पुनरपि त्रीन् वारान् वर्णितं सर्वार्गितं प्रकृत्य केवलज्ञानकेवलदर्शनप्रमाणे प्रक्षिप्ते जातमुत्कृष्टमनन्तानन्तप्रमाणं जघन्योत्कृष्टयोर्मध्येऽजघन्योत्कृष्टो विकल्पः । यत्र यत्रानन्तप्रमाणं परिगृह्यते तत्र तत्राजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तप्रमाणं ग्राह्यं यत्र यत्राभव्याः परिगृह्यन्ते तत्र तत्र जघन्ययुक्तानन्तप्रमाणं वेदितव्यं यत्र यत्र चावलिका पठ्यते तत्र तत्र जघन्ययुक्तासंख्यातं भवतीत्यर्थः ।। ११२७॥ उपमाप्रमाणार्थमाद्द' पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी । लोगपवरो य लोगो अट्ट दु माणा मुणेयव्वा ॥ ११२८॥ * पल्लो - पल्यं पत्योपमं, सायर - सागरः सगरोपमं सूई-सूची सूच्यंगुलं, पवरो य-- प्रतरश्च प्रतरीगुलं, घणंगुलोम – घनांगुलं च, जगसेढी - जगच्छ्रणी, लोगपवरो य-लोकप्रतरं च, लोगो - लोकः मट्ठवु-अष्टोतु, माणा - मानानि प्रमाणानि, मुणेयव्वा - ज्ञातव्यानि । उद्धारपल्योपममुत्पादितं तत्र यानि रोमाग्राणि तान्येकैकं वर्षशतसमयमात्राणि खण्डानि कर्त्तव्यानि एवं कृते यत्प्रमाणमेतेषां रोमार्णा तदद्धापल्यो जीवराशि, वनस्पतिकायिक जीवराशि, पुद्गलपरमाणु और अलोकाकाश के प्रदेश - इन सब का प्रक्षेपण करके पुनरपि उस राशि को तीन बार वर्गित और संगित करें। पुनः उसमें धर्म स्काय और अधर्मास्तिकाय के अगुरुलघु गुणों को मिलाकर जो राशि उत्पन्न हो उसे भी तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्रमाण को मिला दें तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त का प्रमाण उत्पन्न होता है । जघन्य अनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त के मध्य में जितने भी विकल्प हैं उन सभी विकल्पों को मध्यम अनन्तानन्त कहते हैं । जहाँ-जहाँ पर अनन्त प्रमाण लिया जाता है, वहाँ-वहाँ पर अजघन्योत्कृष्ट - मध्यम अनन्तानन्त का प्रमाण ग्रहण करना चाहिए। जहाँ-जहाँ अभव्यराशि को ग्रहण किया जाता है वहाँ-वहाँ जघन्य युक्तानन्त का प्रमाण जानना चाहिए और जहाँ-जहाँ आवली को कहा जाता है वहाँ वहाँ जघन्ययुक्तासंख्यात का प्रमाण लेना चाहिए । इस प्रकार से संख्यात के तीन भेद, असंख्यात के नौ भेद और अनन्त के नौ भेद सब मिलकर इक्कीस भेद रूप संख्यामान का अतिसंक्ष ेप से वर्णन किया गया है । अब उपमाप्रमाण को कहते हैं गाथार्थ - पल्य, सागर, सूची, प्रतर, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, लोकप्रतर और लोक ये आठ भेद उपमामान के जानना चाहिए ।। ११२८ ॥ आचारवृत्ति - पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगत्छ्र ेणी, लोकप्रतर और लोक ये आठ प्रकार का प्रमाण जानना चाहिए । उद्धार पल्योपम को कह दिया है । उसमें जितने रोमखण्ड हैं उनमें एक-एक को सौ वर्ष के जितने समय हैं उतने उतने मात्र खण्ड करना चाहिए। ऐसा करने पर इन रोमखण्डों का जितना प्रमाण होता है उसे अद्धापल्योपम कहते हैं । इस पल्योपम से सर्व कर्मों की स्थिति १, ख उपमाप्रमाणमाह । * यह गाथा कुन्दकुन्दकृत मूलाधार में नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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