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________________ २६० ] [ मूलाचारे मेकादशचतुर्भागैरधिकं, तृतीयेन्द्र के मनके सागरोपमं षभिरेकादशभागैरधिकं, चतुर्थेन्द्रके वनके सागरोपममेकादशभागैरष्टभिरधिकं, पंचमेन्द्र के घाटसंज्ञके सागरोपममेकादशभागैर्दशभिरधिकं, षष्ठेन्द्र के संघाटकसंज्ञके द्वे सागरोपम एकादशभागेनाधिके, सप्तमेन्द्रके जिह्वाख्ये द्वे सागरोपमे विभिरेकादशभागैरधिके, अष्टमेन्द्रके जिहि कनाम्नि द्वे सागरोपमे पंचभिरेकादशभागैरधिके, नवमेन्द्रके लोलनामके द्वे सागरोपमे सप्तभिरेकादशभागैरधिके, दशमेन्द्र के लोलुपाख्ये द्वे सागरोपमे नवभिरेकादशभागैरधिके, एकादशेन्द्रके स्तनलोलुपनाम्नि उक्तान्येव त्रीणि सागरोपमाणीति । तृतीयायां पृथिव्यां प्रथमेन्द्रके तप्तनाम्नि नारकाणां परमायुषः प्रमाणं त्रीणि सागरोपमाणि सागरोपमस्य नवनागैश्चतुर्भागैरभ्यधिकानि, द्वितीयेन्द्रके 'नस्तनामके सागरास्त्रियो नवाष्टभागैरभ्यधिका:, तृतीयके तानसंज्ञके चत्वारः सागरा नवभागैस्त्रिभिरभ्यधिकाः, चतुर्थप्रस्तरे तापनाख्ये चत्वारः सागरा: सप्तभिनवभागैरभ्यधिकाः, पंचमेन्द्र के निदाघाख्ये पंच सागरा नवभागा द्वाभ्यामधिकाः, षष्ठेन्द्रके प्रज्वलिते पंच सागरा: नवभागैः षड्भिरभ्यधिकाः सप्तमेन्द्रके ज्वलिते षट् सागरा नवभागेनैकेनाभ्यधिकाः, अष्टमेन्द्र के संज्वलिते षट् पयोधयो नावभाग: पंचभिरभ्यधिकाः, नवमेन्द्रके संज्वलिते उक्तान्येव सप्तसागरोपमाणि । चतुर्थी पृथिव्यां नारकाणां परमायुषः सागर के ग्यारहवें भाग प्रमाण उत्कृष्ट आयु है। स्तनक नामक द्वितीय इन्द्रक में एक सागर और द्वितीय सागर के ग्यारह भागों में से चार भाग अधिक है । मनक नामक तृतीय इन्द्रक में सागर के ग्यारह भागों में से छह भाग अधिक एक सागर है। वनक नामक चौथे इन्द्रक में एक से ग्यारह भागों में से आठ भाग अधिक एक सागर है। घाट संज्ञक पांचवें इन्द्रक में एक सागर के ग्यारह भाग में से आठ भाग अधिक एक सागर है। संघाटक नामक छठे इन्द्रक में एक सागर के ग्यारहवें भाग अधिक दो सागर है। जिह्वा नामक सातवें इन्द्रक में एक सागर के ग्यारह भागों में से तीन भाग अधिक दो सागर है । जितिक नामक आठवें इन्द्रक में एक सागर के ग्यारह भागों में से पाँच भाग अधिक दो सागर है । लोल नामक नवमें इन्द्रक में एक सागर के ग्यारह भागों में से सात भाग अधिक दो सागर है । लोलुप नामक दसवें इन्द्रक में एक सागर के ग्यारह भागों में से नौ भाग अधिक दो सागर है तथा स्तनलोलुप नामक ग्यारहवें इन्द्रक में उत्कृष्ट आयु तीन सागर प्रमाण है। तीसरी पृथिवी के तप्त नामक प्रथम इन्द्रक में नारकियों की उत्कृष्ट आयु एक सागर के नव भागों में से चार भाग अधिक तीन सागर प्रमाण है। त्रस्त नामक द्वितीय इन्द्रक में एक सागर के नव भागों में से आठ भाग अधिक तीन सागर है। तपन नामक तृतीय इन्द्रक में एक सागर के नव भागों में से तीन भाग अधिक चार सागर है। तापन नामक चतुर्थ प्रस्तार में सागर के नव भागों में से सात भाग अधिक चार सागर है। निदाघ नामक पाँचवें इन्द्रक में सागर के नव भागों में से दो भाग अधिक पाँच सागर है। प्रज्वलित नामक छठे इन्द्रक में एक सागर के नव भागों में से छह भाग अधिक पाँच सागर है । ज्वलित नामक सातवें इन्द्रक में एक सागर के नव भागों में से एक भाग अधिक छह सागर है। संज्वलित नामक आठवें इन्द्रक में एक सागर के नौ भागों में से पाँच भाग अधिक छह सागर है। संज्वलित नामक नवमें इन्द्रक में सात सागरोपम है। १. क जिह्विकाख्ये। २. क तपितनाम्नि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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