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________________ मध उपोद्घात ] श्री कुन्दकुन्ददेव 'नियमसार' में निश्चय प्रतिक्रमण आदि छह आवश्यकों का वर्णन करते हुए अन्त में कहते हैं "जदि सक्कदि कादं जे परिकमणादि करेज्ज झाणमयं । सत्तिविहीणो जो जइ सद्वहणं चेव कायव्वं ॥१५४॥ -यदि करना शक्य हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करना चाहिए और यदि वैसी शक्ति नहीं हो तो तब तक (वैसी शक्ति आने तक) श्रद्धान ही करना चाहिए।' टीकाकार श्रीपप्रम मलधारी देव कहते हैं "हे मुनिपुंगव ! यदि संहनन शक्ति का प्रादुर्भाव हो तो तुम ध्यान रूप निश्चय प्रतिक्रमण आदि करो और यदि शक्तिहीन हो तो इस 'दग्धकालेऽकाले दुषमकाल रूप अकाल में तुम्हें निजपरमात्मतत्त्व का केवल श्रद्धान ही करना चाहिए। पुन: टीकाकार कहते हैं "असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले, न मुक्तिर्मार्गोऽस्मिन्ननजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्मध्यानं कमिह भवेन्निर्मलधियां, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिबम् ।।२६४॥ -इस असार संसार में पाप से बहुल कलिकाल का विलास होने पर निर्दोष जिननाथ के इस मार्ग-शासन में मुक्ति नहीं है। अतः इस काल में अध्यात्म ध्यान कैसे हो सकता है? इसलिए निर्मल बुद्धिवालों के लिए भवभय का नाश करनेवाला यह निजात्मा का श्रद्धान करना ही स्वीकृत किया गया है। गुणभद्रस्वामी भी कहते हैं "जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्वत के समान पृथ्वी का उद्धार अथवा पोषण करने वाले हैं, जो समुद्रों के समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों की निधि-खान अर्थात् स्वामी हैं तथा जो आकाश के समान व्यापक होने पर भी किन्हीं के द्वारा स्पशित न होकर विश्व की विश्रांति के लिए हैं, ऐसे अपूर्व गुणों के धारक चिरन्तन-महामुनियों के शिष्य और सन्मार्ग में तत्पर कितने ही साध आज भी विद्यमान हैं।' भगवान् महावीर के तीर्थ में धर्म-व्युच्छिति नहीं है श्री यतिवृषभाचार्य कहते हैं "विधिनाथ को आदि से लेकर सात तीर्थों में उस धर्म की व्युच्छित्ति हई थी और शेष सोलह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर बनी रही है । उक्त सात तीर्थों में क्रम से पाव पल्य, आधा पल्य, पौन पल्य, पल्य, पौन पल्य, आधा पल्य और पाव पल्य प्रमाण धर्मतीथं का व्युच्छेद रहा है। हण्डावपिणी के दोष से यहां धर्म के सात विच्छेद हए हैं। उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर १. नियमसार गा० १३५। २. नियमसार, गाथा १५४, टीका। ३. सन्त्यद्यपि चिरंतनांतिकचराः संतः कियंतोऽप्यमी ॥३३॥ -आत्मानुशासन गा० १२७८-७९ । Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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