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________________ पर्याधिकारः ] छप्पि य पज्जत्तीओ बोधव्वा होंति सण्णिकायाणं । एवाहि अणिव्वत्ता ते दु अपज्जत्तया होंति ॥१०४६॥ छप्पिय - षडपि च द्वादशार्द्धा अपि समस्ताः, पज्जत्तीओ-पर्याप्तय आहारशरीरेन्द्रियानप्राणभाषा मनः पर्याप्तयः, बोधव्वा – बोद्धव्याः सम्यगवगन्तव्याः, होंति-- भवन्ति, सष्णिकायाणं-संज्ञिकायानां ये संज्ञिनः पंचेन्द्रियास्तेषां षडपि पर्याप्तयो भवन्ति इत्यवगन्तव्यम् । अथ के पर्याप्ता इत्याशंकायामाह - एदाहिएताभिश्चतसृभिः पंचभिः षड्भिः पर्याप्तिभिः, अणिव्यत्ता-अनिर्वत्ता असम्पूर्णा अनिष्पन्नाः, ते दु-ते तु त एव जीवाः, अपज्जत्तथा — अपर्याप्तकाः होंति - भवन्तीति ॥ १०४ ॥ संख्या पर्याप्तीनां नामनिर्देशेनैव प्रतिपन्ना तदर्थं न पृथक् सूत्रं कृतं यावता कालेन च तासां निष्पत्तिर्भवति तस्य कालस्य परिमाणार्थमाह [ २०६ पज्जत्ती पज्जत्ता भिण्णमुहुत्तेण होंति णायव्वा । असमयं पती सर्व्वेसि चोववादीणं ॥ १०५०॥ पज्जतीपज्जता – पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः सम्पूर्णाः पर्याप्तिपर्याप्ताः सम्पूर्णाहारादिहेतव:, ' भिण्णमुहुस्तन - भिन्नमुहूर्तेन समयादूनघटिकाद्वयेन होंति-भवन्ति, णायव्या - ज्ञातव्या एते तिर्यङ्मनुष्या ज्ञातव्याः, यतः अणुसमयं — अनुसमयं समयं समयं प्रतिसमयं वा लक्षणं कृत्वा, पज्जत्ती - पर्याप्तयः, सबस सर्वेषां, उववादीणं – उपपादो विद्यते येषां त उपपादिनस्तेषामुपपादिनां देवनारकाणाम् । अथ स्यान्मतं कोऽयं गाथार्थ - संज्ञिकाय जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होतीं हैं, ऐसा जानना । इन पर्याप्तियों जो अपरिपूर्ण हैं वे अपर्याप्तक होते हैं ।। १०४ ॥ आचारवृत्ति - संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्रान, भाषा और और मन ये छहों पर्याप्तियाँ होती है । अपर्याप्तक जीव कौन है ? जिन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय असंज्ञी अथवा पंचेन्द्रिय जीवों के ये चार, पाँच या छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती ने अपर्याप्तक कहलाते हैं । पर्याप्तियों की संख्या नाम के निर्देश से ही जान ली गयी हैं, अतः उसके लिए पृथक् सूत्र नहीं किया है । अब जितने काल से उन पर्याप्तियों की पूर्णता होती है उस काल का परिमाण बताते हैं १. ककारणाः । गाथार्थ - अन्तर्मुहूर्त के द्वारा तिर्यंच और मनुष्य पर्याप्तियों से पूर्ण होते हैं ऐसा जानना । सभी उपपादजन्मवालों के प्रतिसमय पर्याप्तियों की पूर्णता होती है ।। १०५०।। Jain Education International आचारवृत्ति- आहार आदि की पूर्णता के कारण को पर्याप्ति कहते हैं। ये पर्याप्तियाँ तिर्यंच और मनुष्यों के एक समय कम दो घड़ी काल रूप अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण हो जाती हैं । तथा उपपाद से जन्म लेनेवाले देव और नारकियों के शरीर अवयवों की रचना रूप पर्याप्तियों की पूर्णता प्रति समय होती है । देव नारकियों के पर्याप्तियां प्रति समय होती हैं और शेष जीवों के अन्तर्मुहूर्त से पूर्ण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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