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________________ feest अक्षसंक्रमस्वरूपेण शीलगुणान् प्रतिपादयन्नाह - पढमक्खे अंतगदे श्रादिगदे संकमेदि विदियक्खो । दोण्णिवि गंतूत आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥१०४०॥ गुप्तिकरणसंज्ञेन्द्रिय कायधर्मानुपर्युपरि संस्थाप्य ततः पूर्वोच्चारण क्रमेणाक्षतंक्रमः कार्यः । प्रथमाक्षेऽन्तमवसानं गते प्राप्ते ततोऽन्तं प्राप्यादिगतेऽक्षे संक्रामति द्वितीयोऽक्षः करणस्थस्ततो द्वावक्षावन्तं गत्वा आदि प्राप्तयो: संक्रामति तृतीयोऽक्षस्तेषु त्रिष्वक्षेषु अन्तं प्राप्यादि गतेषु संक्रामति तृतीयोऽक्षस्तेष्वन्तं प्राप्यादिगतेषु संक्रामति चतुर्थोऽक्षस्ततस्तेषु चतुर्ष्वक्षेष्वन्तं प्राप्यादिगतेषु संक्रामति पंचमोऽक्षस्ततस्तेषु पंचस्वक्षेष्वन्तं प्राप्यादिगतेषु संक्रामति षष्ठोक्षः एवं तावत्संक्रमणं कर्त्तव्यं यावत्सर्वेऽक्षा अन्ते व्यवस्थिताः स्युस्ततोऽष्टादशशीलसहस्राणि सम्पूर्णान्यागच्छन्तीत्येवं गुणागमननिमित्तमप्यक्षसंक्रमः कार्योऽव्याक्षिप्तचेतसेति ॥ १०४०॥ उच्चारणारूपाणि दृष्टानि अक्षा नष्टास्तत उच्चारणारूपद्वारेणाक्षान् साधयन्नाह - [ मूलाचारे सगमाह विहत्ते सेसं लक्खित्तु संखिवे रूवं । लक्खिज्जंतं सुद्ध े एवं सव्वत्थ कायव्वं ॥। १०४१॥ सगमाणेह -- स्वकीयप्रमाणैर्योगादिभिर्यत्राक्षो निरूप्यते तानि स्वकप्रमाणानि तैः विहस - विभक्त अक्षसंक्रम के स्वरूप से शील और गुणों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ - प्रथम अक्ष के अन्त को प्राप्त होकर पुनः आदि स्थान को प्राप्त हो जाने पर द्वितीय अक्ष संक्रमण करता है। और जब दोनों ही अक्ष अम्त को प्राप्त होकर आदि स्थान पर आ जाते हैं तब तृतीय अक्ष संक्रमण करता है ॥ ; ०४० ॥ Jain Education International आचारवृत्ति-गुप्ति, करण, संज्ञा, इन्द्रियाँ, काय और धर्म इनको ऊपर-ऊपर स्थापित करके पुनः पूर्वोच्चारण के क्रम से अक्ष का संक्रम अर्थात् परिवर्तन करना चाहिए। पहला अक्ष मन-वचन-काय की गुप्तिरूप जब अन्त तक पहुँचकर पुनः आदि स्थान को प्राप्त हो जाता है तब दूसरा अक्ष अर्थात् करण परिवर्तन करता है । ये गुप्ति और करण दोनों ही अक्ष अन्त तक पहुँचकर पुनः जब आदि स्थान पर आ जाते हैं । तब तीसरा संज्ञा नाम का अक्ष संक्रमण करता है । ये तीनों ही अक्ष जब अन्त को प्राप्त होकर आदि स्थान में आ जाते हैं तब चतुर्थ इन्द्रिय अक्ष परिवर्तन करता है | ये चारों ही अक्ष जब अन्त तक पहुँचकर पुनः आदि स्थान पर आ जाते हैं तब पाँचवाँ काय नाम का अक्ष संक्रमण करता है । इन पाँचों ही अक्षों के अन्त तक पहुँचकर आदि स्थान पर आ जाने पर छठे अक्ष का तब तक परिवर्तन करना चाहिए कि जब तक सभी अक्ष अन्त में व्यवस्थित न हो जाएँ । तब इस विधान से अठारह हज़ार शील सम्पूर्ण होते हैं । उसी तरह से गुणों को लाने के लिए भी स्थिरचित्त होकर अक्ष संक्रमण करना चाहिए। उच्चारण रूप तो देखे गये किन्तु अक्ष नष्ट हैं अर्थात् भंग मालूम नहीं हैं अतः उच्चारण के द्वारा भंगों को साधते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ - अपने प्रमाणों के द्वारा भाग देने पर शेष को देखकर एक रूप का क्षेपण करे और शून्य के आने पर अक्ष को अन्तिम समझे । ऐसा ही सर्वत्र करना चाहिए ॥। १०४१ ।। आचारवृत्ति - जहाँ पर स्वयं प्रमाणभूत योग या करण आदि द्वारा भंग निरूपण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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