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________________ १५८ ] [ मूलाचारे रागस्य द्वेषस्य मोहस्य च वशास्तदायत्ताः परिणमन्तीति ज्ञातव्याः कर्मायत्तत्वात्सर्वसांसारिकपर्यायाणामिति ॥ ८८ ॥ रागद्वेषफलं प्रतिपादयन्नाह अत्थस्स जीवियस्स य जिब्भोवत्थाण कारणं जीवो मरदिय मारावेदि य अणंतसो सव्वकाल तु ॥ ८६ ॥ अर्थस्य कारणं गृहपशुवस्त्रादिनिमित्त जीवितस्य च कारणं आत्मरक्षार्थं च जिह्वायाः कारणं आहारस्य हेतोरुपस्थस्य कारणं कामनिमित्तं जीवो म्रियते स्वयं प्राणत्यागं करोति मारयति चान्यांश्च हिनस्ति प्राणविघातं च कारयति अनन्तशोऽनन्तवारान् सर्वकालमेवेति ॥ ६८६ ॥ तथा जिन्भोवत्थणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे । पत्तो अनंतसो तो जिब्भोवत्थे जयह दाणि ॥ ६० ॥ रसनेन्द्रियनिमित्तं स्पर्शनेन्द्रियनिमित्तं चानादिसंसारे जीवो दुःखं प्राप्तोऽनन्तशोऽनन्तवारान् यतोऽतो जिह्वामुपस्थं च जय सर्वथा त्यजेदानीं साम्प्रतमिति ॥ ६० ॥ चदुरंगुला च जिन्भा असुहा चदुरंगुलो उवत्थो वि । अट्ठ गुलदोसेण दुजीवो दुक्खं खु पप्पोदि ॥ ६१ ॥ हैं उन उन को राग-द्व ेष और मोह के अधीन हुए ही ग्रहण करते हैं; क्योंकि सभी सांसारिक पर्यायें कर्म के ही अधीन हैं । राग-द्वेष का फल दिखलाते हैं गाथार्थ - यह जीव धन, जीवन, रसना इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के निमित्त हमेशा अनन्त बार स्वयं मरता है और अन्यों को भी मारता है ॥६६॥ श्राचारवृत्ति - अर्थ अर्थात् गृह, पशु, वस्त्र, धन आदि के लिए तथा जीवन अर्थात् आत्मरक्षा के लिए, जिह्वा अर्थात् आहार के लिए और उपस्थ अर्थात् कामभोग के लिए यह जीव स्वयं सदा ही अनन्त बार प्राण त्याग करता है और अनन्त बार अन्य जीवों का भी घात करता है । उसी को और कहते हैं Jain Education International गाथार्थ - इस जीव ने इस अनादि संसार में जिह्न न्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के वश में होकर अनन्त बार दु:ख प्राप्त किया है, इसलिए हे मुने ! तुम इसी समय इस रसनेन्द्रिय और कामेन्द्रिय को जीतो ॥ ६६०॥ आचारवृत्ति - रसनेन्द्रिय के निमित्त और स्पर्शनेन्द्रिय के निमित्त से ही इस जीव ने इस अनादि-संसार में अनन्त बार दुःखों को प्राप्त किया है, इसलिए हे साधो ! तुम इसी समय उन दोनों के विषयों का त्याग करो । उसी को और भी स्पष्ट करते हैं गाथार्थ - चार अंगुल की जिह्वा अशुभ है और चार अंगुल की कामेन्द्रिय भी अशुभ है । इन आठ अंगुलों के दोष से यह जीव निश्चितरूप से दुःख प्राप्त करता है ॥ ६१ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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