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________________ [ मूलाचार तवसुत्तसत्तगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य। पविआ आगमबलिमो एयविहारी अणुण्णावो॥ १४६ ।। गिहिदत्थेयविहारो विदिओऽगिहिवत्थससिदो चेव । एत्तो तदियविहारो णाणुण्णादो जिणवरेहिं ।। १४८ ॥ सच्छंदगदागदी-सयणणिसयणावाणभिक्खवोसरणे। सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तू वि एगागी ॥ १५० ।। गुरुपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्थस्स मइलणा जडदा। भित्रलकूसीलपासत्थदा य उस्तारकप्पम्हि ।। १५१ ।। कंटयखण्णयपडिणियसाणगोणाविसप्पमेच्छेहि । पावइ आदविवत्ती विसेण य विसूइया चेव ।। १५२ ।। गारविओ गिद्धीओ माइल्लो अलसलुद्धणिधम्मो । गच्छे विसंतसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो ॥ १५३ ।। आणा अणवत्या वि य मिच्छत्ताराहणावणासो य । संजमविराहणा वि य एदे दूणिकाइया ठाणा ॥ १५४ ॥ विहार के गृहीतार्थ-विहार और अगृहीतार्थ-विहार ऐसे दो भेद हैं । इनके सिवाय तीसरे विहार की जिनेश्वरों ने आज्ञा नहीं दी है। जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का चारित्र का, पालन करते हुए देशान्तर में विहार गहीतार्थविहार है, और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चारित्र का पालन करते हुए मुनियों का जो विहार है वह अगृहीतार्थ-संश्रित-विहार है। जो साधु बारह प्रकार के तप को करने वाले हैं, द्वादशांग और चतर्दश पूर्व के ज्ञाता हैं अथवा काल, क्षेत्र आदि के अनुरूप आगम के ज्ञाता हैं या प्रायश्चित आदि ग्रन्थों के वेत्ता हैं, देह की शक्ति और हड्डियों के बल से अथवा भाव के सत्त्व से सहित हैं, शरीरादि से भिन्न रूप एकत्व भावना में तत्पर हैं, वज्रवृषभनाराच आदि तीन संहननों में से किसी एक उत्तम संहनन के धारक हैं, धति-मनोबल से सहित हैं अर्थात् क्षुधा आदि बाधाओं को सहने में समर्थ हैं, बहुत दिन के दीक्षित हैं, तपस्या से वृद्ध हैं -अधिक तपस्वी हैं और आचार-शास्त्रों में पारंगत हैं-ऐसे मुनि को एकलविहारी होने की जिनेन्द्रदेव ने आज्ञा दी है। गमनागमन, सोना, उठना, बैठना, कोई वस्तु ग्रहण करना, आहार लेना, मलमूत्रादि विसर्जन करना, बोलना-चालना आदि क्रियाओं में स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने वाला ऐसा कोई भी मूनि मेरा शत्र भी हो तो भी वह एकाकी विचरण न करे । स्वेच्छाचारी मनि के एकाकी विहार से गुरु की निन्दा होती है, श्रुताध्ययन का व्युच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता-~~-मूर्खता, आकुलता, कुशीलता, पार्श्वस्थता आदि दोष आते हैं। एकलविहारी होने से कंटक, लूंठ आदि का उपद्रव; कुत्ते, बैल आदि पशओं के और म्लेच्छों के उपसर्ग; विष, हैजा आदि से भी अपना घात हो सकता है। ऋद्धि आदि गौरव से गर्वयुक्त, हठग्राही, कपटी, आलसी, लोभी और पापबुद्धियुक्त मुनि संघ में रहते हुए भी शिथिलाचारी होने से अन्य मुनियों के साथ नहीं रहना चाहता है: स्वच्छन्द मुनि के जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का लोप, अनवस्था-देखादेखी स्वच्छन्द विहारी कीपरम्परा बन जाना, मिथ्यात्व की आराधना, आत्मगुणों का नाश और संयम की विराधना-इन पांच निकाचित दोषों का प्रसंग आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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