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[ मूलाधार
प्रस्तुत भाग इस ग्रन्थ का उत्तरार्ध है जिसमें शेष पांच अधिकारों का वर्णन है। इन १२ अधिकारों ___ का विषय संक्षेप में इस प्रकार है
१. मूलगुणाधिकार-इस अधिकार में मूलगुणों के नाम, बतलाकर पुनः प्रत्येक का लक्षण अलगअलग गाथाओं में बतलाया गया है । भनन्तर इन मूलगुणों के पालन करने का फल निर्दिष्ट है।
२. बहत प्रत्याख्यान-संस्तरस्तवाधिकार-इस अधिकार में पापयोग के प्रत्याख्यान-त्याग करने का कथन है। संन्यासमरण के भेद और उसके लक्षणों का भी मंक्षेप में विवेचन है।
३. संक्षेप प्रत्याख्यानाधिकार-इसमें अति संक्षेप में पापों के त्याग का उपदेश है । दश प्रकार के मुण्डन का भी अच्छा वर्णन है।
४. समाचाराधिकार-प्रातःकाल से रात्रिपर्यन्त-अहोरात्र साधुओं की चर्या का नाम ही समाचार चर्या है। इसके औधिक और पदविभागी दो भेद किए हैं। उनमें भी ओधिक के १० भेद और पदविभागी के अनेक भेद किए गये हैं। इस अधिकार में आजकल के मुनियों को एकलविहारी होने का निषेध किया है। आयिकामों की चर्या का कथन, यथा उनके आचार्य कैसे हों-इस पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है।
५. पंचाचाराधिकार-इसमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार. तप-आचार और वीर्याचार इन पांचों आचारों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है।
६. पिडशद्धि अधिकार-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धम और कारण इन आठ दोषों से रहित पिण्डशुद्धि होती है। उद्गगम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० इस प्रकार ४२ दोष हए । पूनः संयोजना, अप्रमाण, अंगार और धूम ये ४ मिलकर ४६ दोष होते हैं। मुनिजन इन दोषों को टालकर, ३२ अन्तरायों को छोड़कर आहार लेते हैं । किन कारणों से आहार लेते हैं ? किन कारणों से छोड़ते है ? इत्यादि का इसमें विस्तार से कथन है।
७. षडावश्यकाधिकार -इसमें 'आवश्यक' शब्द का अर्थ बतलाकर समता, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग-इन छह आवश्यक क्रियाओं का विस्तार से वर्णन है।
यहां तक ग्रन्थ के पूर्वाधं का विषय है । उत्तरार्ध का विषय इस प्रकार है
८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार-इसमें १२ अनुप्रेक्षाओं का वर्णन है। लोकानुप्रेक्षा को आचार्य ने छठी अनुप्रेक्षा में लिया है। सप्तम अनुप्रेक्षा का नाम अशुभ अनुप्रेक्षा रखा है, और आगे उसी अशुभ का लक्षण किया है। इन अनुप्रेक्षाओं के क्रम का मैंने पूर्वार्ध की प्रस्तावना में भी खुलासा कर दिया है।
६. अनगारभावनाधिकार-इसमें मुनियों की उत्कृष्ट चर्या का वर्णन है। लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर-संस्कार-त्याग, वाक्य, तप और ध्यान सम्बन्धी दश शद्धियों का अच्छा विवेचन तथा अनावकाश आदि योगों का भी वर्णन है। इस अधिकार का पालन पूर्णरूप से जिनकल्पी मुनि ही कर सकते हैं।
१०. समयसाराधिकार-इसमें चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन है। चार प्रकार के लिंग का और दश प्रकार के स्थितिकल्प का भी अच्छा विवेचन है। दश स्थितिकल्प के नाम हैं-(१) अचेलकत्व, (२) अनौद्देशिक, (३) शैयागृह-त्याग, (४) राजपिंड-त्याग, (५) कृतिकर्म, (६) व्रत, (७) ज्येष्ठता, (८) प्रतिक्रमण, (९) मासस्थितिकल्प और (१०) पर्यवस्थितिकल्प ।
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