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निशीथ के कर्ता षट्खंडागम को घवला टोका' और कसाय पाहुड की जय धवला टोका में श्रु तावतार' की परंपरा का जो वर्णन है, उसमें भ० महावीर के बाद तीन केवली और पाँच श्रुत केवली-- इस प्रकार पाठ प्राचार्यों के बाद आने वाले नवम प्राचार्य का नाम, जो कि ग्यारह दश पूर्वी में से प्रथम प्राचार्य थे, विशाग्वाचार्य दिया हुआ है । जय धवला में केवली और शत-केवली का समय, सब मिलाकर १६२ वर्ष हैं । अर्थात वीर निर्वाण के १६२ वर्ष के बाद विशाखाचार्य को प्राचार्य भद्रबाहु से श्रुत मिला। किन्तु वे सम्पूर्ण श्रुत को धारण न कर सके, केवल ग्यारह अंग और दश पूर्व संपूर्ण, तथा शेष चार पूर्व के अंश को धारण करने वाले हुए।
अन्य किसी प्राचीन विशाखाचार्य का पता नहीं चलता, अतएव यह माना जा सकता है कि निशीथ की प्रशस्ति में जिन विशाखाचार्य का उल्लेख है, वे यही थे । अब प्रश्न यह है कि प्रशस्ति में निगीथ के लेखक रूप से विशाखाचार्य के नाम का उल्लेख रहते हुए भी चूर्णिकार वे निशीथ को गणधरकृत क्यों कहा ? तथा विशाखाचाय तो दशपूर्वी थे, फिर शीलांक ने निशीथ के रचयिता स्थविर को चतुर्दशपूर्वविद् क्यों कहा ? इसके उत्तर में अभी निश्चयपूर्वक कुछ कहना तो संभव नहीं है । चूर्णिकार और नियुक्ति या भाष्यकार के समक्ष ये प्रशस्तिगाथाएं रही होंगी या नहीं. प्रथम तो यही विचारणीय है । नियुक्ति में केवल स्थविर शब्द का प्रयोग है । और मुख्य प्रश्न तो यह भी है कि यदि निशीथ के लेखक विशाखाचार्य थे, तो क्या इन प्रशस्ति गाथानों का निर्माण उन्होंने स्वयं किया या अन्य किसी ने ? स्वयं विशाखानार्य ने अपने विषय में प्रशस्ति-निदिष्ट परिचय दिया हो, यह तो कहना संभव नहीं । और यदि स्वयं विशाखाचार्य ने ही यह प्रशस्ति मूलग्रन्थ के अन्त मे दी होती. तो नियुक्तिकार विशाखाचार्य का उल्लेख न करके केवल 'स्थविर' शब्द से ही उनका उल्लेख क्यों करते ? यहाँ एक यह भी समाधान हो सकता है कि नियुक्ति की वह गाया, जिसमें चूलानों को स्थविरकृत कहा गया है, केवल चार चूलाओं के संबन्ध में ही है। और वह पांचवी चूला के निर्माण के पहले की नियुक्ति गाथा हो सकती है। क्योंकि उसमें स्पष्ट रूप से चूलालों का निर्माण 'प्राचार' से ही होने की बात कही गई है । और प्राचार' से तो चार हो चूला का निर्माण हुया है। पांचवीं चूला का निर्माण तो प्रत्याख्यान पूर्व के प्राचार नामक वस्तु से हना है । अतएव 'पाचार' शब्द से केरल प्राचारांग ही लिया जाए और 'प्राचार' नामक पूर्वगत 'वस्तु' न लिया जाए। प्रथम चार ही चूलाएं प्राचारांग में जोड़ी गई और बाद में कभी पांचवीं निशीथ चूला जोड़ी गई, यह भी स्वीकृत ही है । ऐसी स्थिति में हो सकता है कि नियुक्ति गत स्थविर' शब्द केवल प्रथम चार चूलानों के ग्रन्थन से ही संबन्ध रखता हो, अंतिम निशीथ चूला से नहीं। किन्तु यदि यही विचार सही माना जाए, तब भी नियुक्तिकार ने पांचवीं चूला के निर्माता के विषय में कुछ नहीं कहा-यह तो स्वीकृत करना ही पड़ेगा । ऐसी स्थिति में पुनः प्रश्न यह है कि वे पांचवी चूला निशीथ के कर्ता का निर्देश क्यों नहीं करते ? अतएव यह कल्पना की जा सकती है कि नियुक्तिकार के समक्ष ये गाथाएं नहीं थीं । अथवा यों कहना चाहिए कि ये गाथाए स्वयं विशाखा
१. धवला खंड १, पृ. ६६ । २. जयपवला भाग १, पृ० ८५ ३. अन्यत्र दी मई श्रुतावतार की परपरा के लिये, देखो, जय पवला की प्रस्तावना, भाग १,
पृ. ४६ ।
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