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________________ निशीथ सूत्र अंग या अंगबाह्य ? निशीथ सत्र अंग या अंगवाह्य ? समग्र आगम ग्रन्थों का प्राचीन वर्गीकरण है-अंग और अंगबाह्य । निशीथ सूत्र के नाम से जो ग्रन्थ हमारे समक्ष है, उसे प्राचारांग की पांचवीं चूला' कहा गया है और अध्ययन की दृष्टि से वह आचारांग का छब्बीसवाँ अध्ययन घोषित किया गया है। इस पर से स्पष्ट है कि वह कभी अंगान्तर्गत रहा है । किन्तु एक समय ऐसा आया कि उपलब्ध आचारांग सूत्र से इस अध्ययन को पृथक् कर दिया गया; और इसका छेद सूत्रों में परिगणन किया जाने लगा । तदनुसार यह निशीथ सूत्र, अंग ग्रन्थ-पाचारांग का अंश होने के कारण अंगान्तर्गत होते हुए भी,अंग बाह्य हो गया है। वस्तुतः देखा जाए तो अंग और अंगबाह्य जैसा विभाग उत्तरकालीन ग्रन्थों में नहीं होता है, किन्तु अंग, उपांग, छेद, मूल, प्रकीर्णक और चूलिका-इस रूप में प्रागम ग्रन्थों का विभाग होता है । और तदनुसार निशीथ छेद में संमिलित किया जाता है। एक बात की ओर यहाँ विशेष ध्यान देना आवश्यक है कि स्वयं प्राचारांग में भी 'निशीथ' एक अंतिम चूला रूप है। इसका अर्थ यह है कि वह कभी-न-कभी मूल प्राचारांग में जोड़ा गया था । और विशेष कारण उपस्थित होने पर उसे पुनः आचारांग से पृथक् कर दिया गया। उपयुक्त विवेचन पर से यह कहाजा सकता है कि निशीथ मौलिक रूप में प्राचारांग का अंश था ही नहीं, किन्तु उसका एक परिशिष्ट मात्र था। इस दृष्टि से छेद में, जो कि अंगबाह्य या अंगेतर वर्ग था, निशीथ को संमिलित करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी। ___अंगवर्ग के अन्तर्गत न होने मात्र से निशीथ का महत्त्व अन्य अंग ग्रन्थों से कुछ कम हो गया है-यह तात्पर्य नहीं है। क्योंकि निशीथ का अपना जो महत्त्व है, वही तो उसे छेद के अन्तर्गत करने में कारण है। निशीथ को प्राचारांग का अंश केवल श्वेताम्बर आम्नाय में माना जाता है, यह भी ध्यान देने की बात है। दिगम्बर प्राम्नाय में निशीथ को अंगबाह्य ग्रन्थ ही माना गया है । अंगों में उसका स्थान नहीं है । वस्तुतः अंग की व्याख्या के अनुसार निशीथ अंग बाह्य ही होना चाहिए। क्योंकि वह गणधरकृत तो है नहीं । स्थविर या पारातीय आचार्यकृत है । अतएव जैसा कि दिगम्वर आम्नाय में उसे केवल अंगबाह्य कहा गया है, वस्तुतः वह अंगबाह्य ही होना चाहिए। और श्वेताम्बरों के यहाँ भी अंततोगत्वा छेद वर्ग के अंतर्गत होकर वह अपने ठीक स्थान पर पहुंच गया है । १. नि० पृ. २ २. वही पृ. ४ ३. छेदवर्ग में अन्तर्गत होने पर भी भाष्यकार और चूणिकार तो उसे अंगान्तर्गत ही मानते रहे-देखो, नि० गा० ६१६० और उसका उत्थान तथा निशीथ चूणि का प्रारंभिक भाग । ४. हि० के० पृ० ३५-४१ ५. देखो, षट् अण्डागम भाग १ पृ० ६६, तथा कसायपाहुड भाग १ पृ. २५, १२१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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