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________________ निशीथ : एक अध्ययन तो एक का संशोधन और संपादन करते हुए दूसरे का संशोधन और संपादन भी सहज भाव मे कर ले, तो कोई आश्चर्य नहीं । किन्तु इसके लिये अपार धैर्य की अपेक्षा रहती है, जो गति की शीघ्रता को साधने वाले इस युग में सुलभ नही है । ऐसी स्थिति में हमें इतने से भी संतोष करना चाहिए कि एक सुवाच्य रूप में संपादन हमारे समक्ष प्राया तो सही । जहाँ तक प्रस्तुत निशीथ का सम्बन्ध है, कहा जा सकता है कि इसमें और भी संशोधन अपेक्षित है । फिर भी विद्वान् लोग जिसकी वर्षों से राह देखते रहे हैं, उसे सुलभ बनाकर, उक्त मुनि राजों ने जो श्रेय अर्जित किया है, वह किसी प्रकार भी कम प्रशंसनीय नहीं है । ४ निशीथसूत्र को छेद सूत्र माना जाता है । श्रागमों के प्राचीन वर्गीकरण में छेद ग्रन्थों का पृथक् वर्ग नहीं था; किन्तु जैसे-जैसे श्रमण संघ के प्राचार की समस्या जटिल होती गई और प्रतिदिन साधकों के समक्ष अपने संयम का पालन और उसकी सुरक्षा के साथ-साथ जैन धर्म के प्रचार और प्रभाव का प्रश्न भी आने लगा, तैसे-तैसे आचरण के नियमों में ग्रपवाद मार्ग बढ़ने लगे और संयम-शुद्धि के सदुपायस्वरूप प्रायश्चित्त-विधान में भी जटिलता आने लगी । परिणामस्वरूप ग्राचारशास्त्र का नवनिर्माण होना आवश्यक हो गया । श्राचारशास्त्र की जटिलता के साथ-ही-साथ उसकी रहस्यमयता भी क्रमशः बढ़ने लगी। फलतः आगमों का एक स्वतन्त्र वर्ग, छेद ग्रन्थों के रूप में वृद्धिंगत होने लगा। यह वर्ग अपनी टोकानुटीकायों के विस्तार के कारण अंग ग्रन्थों के विस्तार को भी पार कर गया। इतना ही नहीं, उक्त वर्ग ने अंगों के महत्व को भी प्रमुक अंश में कम कर दिया। जो अपवाद, अंगों के अध्ययन के लिये भी । श्रावश्यक नहीं थे, वे सब छेद ग्रन्थों के अध्ययन के लिये आवश्यक ही नहीं, अत्यावश्यक करार दिए गए ; यही छेद वर्ग के महत्त्व को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है अन्ततोगत्वा श्रागमों का जा अन्तिम वर्गीकरण हुग्रा, उसमें छेद ग्रन्थों के वर्ग को भी एक स्वतंत्र स्थान देना पड़ा । इस प्रकार छेद ग्रन्थों को जैन आगमों में एक महत्त्व का स्थान प्राप्त है—यह हम सबको सहज ही स्वीकार करना पड़ता है । और यह भी प्रायः सर्वसम्मत हैं कि उन छेद ग्रन्थों में भी निशीथ का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । प्रस्तुत महत्ता के मौलिक कारणों में निशीथ सूत्र की नियुक्ति, भाष्य, चूर्ण, विशेष चूर्णि ग्रादि टीकाओं का भी कुछ कम योगदान नहीं है। अपितु यों कहना चाहिए कि भाष्य और चूर्णि प्रादि के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया है । अतएव निशीथ के प्रस्तुत प्रकाशन से एक महत्व पूर्ण कार्य की संपूर्ति उपाध्याय श्री अमर मुनि और मुनिराज श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने की है, इसमें सन्देह नहीं है । इतः पूर्वं निशीथ का प्रकाशन साइक्लोस्टाईल रूप में ग्राचार्य विजयप्रेमसूरि और पं० श्री जंबूविजय जी गणि हारा हुआ था। उस संस्करण में निशीथ सूत्र, नियुक्ति मिश्रित भाष्य और विशेष चूर्णि संमिलित थे । किन्तु परम्परा- पालन का पूर्वाग्रह होने के कारण, वह संस्करण, विक्री के लिये प्रस्तुत नहीं किया गया, केवल विशेषसंयमी ग्रात्मार्थी प्राचार्यों को ही वह उपलब्ध था । निशीथ सूत्र का महत्त्व यदि एक मात्र संयमी के लिये जब से डा० जगदीशचन्द्र जैन ने अपने निबन्ध में निशीथचूरिंग की सामग्री का उपयोग करके विद्वद् जगत् में इसकी बहुमूल्यता प्रकट की है, तब से तो बनी रही है । चूकि की माँग बराबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001828
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages312
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, F000, F010, & agam_nishith
File Size17 MB
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