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सांस्कृतिक सामग्री: (४) 'नौदरिक' वह सार्थ होता था, जो अपने रुपये लेकर चलता था, और जहाँ आवश्यकता होती, पास के सुरक्षित धन.से ही खा-पी लेता था। अथवा भोजन-सामग्री अपने साथ रखने वाले को भी औदरिक कहा गया है । ये व्यापारार्थ यात्रा करने वालों के सार्थ हैं।
(५) 'कप्पढिय' अर्थात् भिक्षुकों का सार्थ । यह भिक्षाचर्या करके अपनी आजीविका किया करता था।
सार्थ में मोदकादि पक्कान्न तथा घी, तेल, गुड, चावल, गेहूँ आदि नानाविध धान्य का संग्रह रखा जाता था । और विक्रय के लिये कुकुम, कस्तूरी, तगर, पत्तचोय, हिंगु, शंखलोय आदि वस्तुएं प्रचुर मात्रा में रहती थीं। (नि० गा०५६६४; बृ० गा० ३०७२)। निशीथ में सार्थ से सम्बन्धित नाना प्रकार की रोचक सामग्री विस्तार से वर्णित है, जिसका संबंध सार्थ के साथ विहार-यात्रा करने वाले श्रमणों से है।
अनेक प्रकार की नौकाओं का विवरण भी निशीथ की अपनी एक विशेषता है। एक स्थान पर लिखा है कि तेयालग (प्राधुनिक वेरावल) पट्टण से बारवई (द्वारका) पर्यन्त समुद्र में नौकाएं चलती थीं। ये नौकाएं, अन्यत्र नदी आदि के जल में चलने वाली नौकाओं से भिन्न प्रकार की थीं। नदी आदि के जल में चलने वाली नौकाएं तीन प्रकार की थीं :
(१) मोयाण -जो अनुस्रोतगामिनी होती थीं। (२) उजाण-जो प्रतिस्रोतगामिनी होती थीं। (३) तिरिच्छसंतारिणी-जो एक किनारे से दूसरे किनारे को जाती थीं।
-(नि० गा० १८३) जल-संतरण के लिये नौका के अतिरिक्त अन्य प्रकार के साधन भी थे; जैसे-कुम्भ = लकड़ी का चौखटा बनाकर उसके चारों कोनों में घड़े बाँध दिए जाते थे; दत्ति = दृतिक, वायु से भरी हुई मशकें; तुम्ब = मछली पकड़ने के जाल के समान जाल बनाकर उसमें कुछ तुम्बे भर दिए जाते थे और इस तुम्बों की गठरी पर संतरण किया जाता था; उडुप अथवा कोट्टिम्ब = जो लकड़ियों को बाँधकर बनाया जाता है; परिण = पण्णि नामक लतामों से बने हुए दो बड़े टोकरों को परस्पर बाँधकर उस पर बैठकर संतरण होता था-(नि० गा० १८५, १६१, २३७, ४२०६)। नौकामें छेद हो जाने पर उसे किस प्रकार बंद किया जाता था, इसका वर्णन भी महत्वपूर्ण है। इस प्रसंग में बताया गया है कि मुज को या दर्भ को अथवा पीपल ग्रादि वृक्ष की छाल को मिट्टी के साथ कूट कर जो पिंड बनाया जाता था, वह 'कुट्टविंद' कहा जाता था और उससे नौका का छेद बंद किया जाता था । अथवा वस्त्र के टुकड़ों के साथ मिट्टी को कूट कर जो पिंड बनाया जाता था, उसे 'चेलमटिया' कहते थे। वह भी नौका के छेद को बंद करने के काम में आता था गा० ६०१७ ) । नौका-संबंधी अन्य जानकारी भी दी गई है (नि० गा० ६० १२-२३)
. भगवान् महावीरने तो अनार्य देश में भी विहार किया था; किन्तु निशीथ सूत्र में विरूप, दस्यु, अनार्य, म्लेच्छ और प्रात्यंतिक देश में विहार का निषेध है ( नि० सू० १६, २६ )। उक्त सूत्र की व्याख्या में तत्कालीन समाज में प्रचलित आर्य-अनार्य-सम्बन्धी मान्यता की सूचना मलती है।
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