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नवाँ परिच्छेद
धवल सेठ की नीचता नौकायें द्रुतवेग से अपना रास्ता तय कर रही थीं। कुमार अपनी सबसे बड़ी नौका में स्वतन्त्रता-पूर्वक सफर कर रहे थे। उनकी ऋद्धि सिद्धि, उनका परिवार, उनके नौकर-चाकर और उनकी शान-शौक़त देखकर धवल सेठको मन-ही-मन भीषण परिताप होने लगा। उसके हृदय में बड़े जोरों से ईर्ष्याग्नि धधक उठी। वह अपने मन में कहने लगा :- "इसने मेरी पाँच सौ नौकाओं में से आधी नौकायें बँटा लीं। खाली हाथ आया था, और इस समय इतनी बड़ी सम्पत्ति का अधिकारी बन बैठा है। देवांगना जैसी दो स्त्रियाँ भी इसे मिल गयीं !
चिन्ता की कोई बात नहीं। अभी घर थोड़े ही पहुँच गया है। मैं भी देगा कि, यह सारी सम्पत्ति लेकर किस प्रकार घर पहुँचता है? यदि मैं इसे समुद्र में ढकेल दूं, तो इसकी यह सारी सम्पत्ति और दोनों स्त्रियाँ अनायास ही मेरे हाथ में आ सकती हैं। किसकी सामर्थ्य है, जो मेरे इस कार्य में बाधा दे सके?" ।
इस प्रकार मन में पाप-पूर्ण विचार उत्पन्न होनेपर धवल सेठको अधिकाधिक सन्ताप होने लगा। अब तक वह केवल ईर्ष्याग्निसे ही जल रहा था, किन्तु अब कुमार की रूपवती
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