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श्रीपाल-चरित्र
एक दिन श्रीपालकुमार आनन्दपूर्वक नाटक देख रहे थे। उसी समय कई अनुचरों के साथ एक सवार वहाँ आ पहुँचा। श्रीपाल ने उन लोगों का सत्कार कर, उन्हें अपने पास बैठाया। नाटक देखकर वे लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। श्रीपाल कुमार ने नाटक समाप्त होने पर उनसे पूछा :आपलोग कहाँ से और किसलिये आये हैं?
सवार ने अपना परिचय देते हुए कहा :- "इस रत्नद्वीप में रत्नसानु नामक एक वलयाकार पर्वत है। उस पर्वत पर रत्नसञ्चया नामक नगरी है। वहाँ कनककेतु नामक विद्याधर राज करता है। उसकी रानी का नाम रत्नमाला है। उसने चार पुत्र और एक कन्या को जन्म दिया है। कन्या का नाम मदनमंजुषा है। वह बहुत ही रूपवती है। पर्वत के शिखर पर राजा के पिता ने एक जिन-मन्दिर निर्मित करवाया है। उसमें स्वर्णमयी श्रीऋषभदेव भगवान की मूर्ति स्थापित है। राजा
और राज-कुमारी उनकी बहुत ही भक्ति करते हैं।” ____ एकदिन राज-कुमारी ने प्रभु की बहुत ही मनोहर
आँगी रची। सुवर्ण के पत्र लगाकर बीच-बीच में रत्न सजा दिये। इससे आँगी की शोभा सौगुनी बढ़ गयी। इसी समय राजा कनककेतु मन्दिर में जा पहुँचे। राजकुमारी द्वारा रचित आँगी देखकर उन्हें सीमातीत आनन्द हुआ। वे अपने मन में कहने लगे :- “धन्य है मेरी पुत्री को। यह चौंसठ कलाओं की निधान है। इसके लिये अब ऐसा ही योग्य वर खोजना चाहिये। यदि अनुरूप वर न मिला
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