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श्रीपाल-चरित्र पुत्र-वधू का ही प्रताप है। इसी के प्रताप से मैं निरोग हुआ
और इसी के उपदेश से मुझे जैन धर्म की प्राप्ति हुई है।" यह सुन कमलप्रभा ने पुनः अपनी पुत्र-वधू को हृदय से लगाकर आशीर्वाद दिया।
कमलप्रभा अपने पुत्र की उन्नति, रोग-मुक्ति और विवाह का समाचार पहले ही सुन चुकी थी, इसीलिये यह सब बातें उसे बतलानी न पड़ीं। उसने श्रीपाल को अपनी आत्म-कथा बतलाते हुए कहा-“पुत्र! तुझे शायद स्मरण होगा, कि कोढ़ियों के संसर्ग से जब तुझे भी यह घृणित रोग हो गया, तब मैं तुम्हें कोढ़ियों को सौंप, वैद्य की खोज में निकल पड़ी थी। रास्ते में मैंने सुना कि कौशाम्बी में एक अच्छे वैद्य रहते हैं, जो इस व्याधि को निर्मूल कर सकते हैं। यह सुन, मैंने कौशाम्बी नगरी का रास्ता लिया।
रास्ते में मुझे एक ज्ञानी गुरु मिले। मैंने उन्हें नमस्कार कर निवेदन किया कि हे भगवन् ! दुर्भाग्यवश मैंने अबतक अनेक कष्ट सहन किये हैं। पति का वियोग हुआ, राज्य गया, ऐश्वर्य गया, सुख-समृद्धि से हाथ धोने पड़े और अन्त में अनाथ की भाँति वन-वन भटकना पड़ा; किन्तु इससे भी दैव को सन्तोष न हुआ। मेरा एकमात्र पुत्र, जिसे मैं दुःख के दिनों में देखकर अपना दुःख भूल जाती थी, जो मेरे जीवन का एकमात्र सहारा था, वह भी कुष्ट-व्याधि से ग्रसित हो गया। हे कृपानिधान ! कृपया बतलाइये, कि मेरा वह लाल इस रोग से कब मुक्त होगा?"
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