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________________ चौथा परिच्छेद कृपालु और हितैषी दूसरा कोई नहीं होता। गुरुदेव इह लोक के कष्ट दूर करते रहते हैं परलोक के कष्टों से बचाते हैं, सद्बुद्धि प्रदान करते हैं और तत्त्वा-तत्व एवं कर्तव्या-कर्तव्य बतलाते हैं। ऐसे गुरुदेव को और ऐसे जैन-धर्म को धन्य है।" __श्रीपाल ने भी मैनासुन्दरी की बातों का अनुमोदन किया और धर्म की प्रशंसा करते हुए दोनों बोधि-बीज सम्यक्त्व को प्राप्त हुए। इसके बाद उन्होंने अपने दल के ७०० कोढ़ियों पर भी सिद्धचक्र का न्हवन-जल छिड़का। यह जल पड़ते ही वे भी रोग-मुक्त हो गये। कुछ दिनों के बाद उन सबों ने अपनेअपने घर जाने की आज्ञा माँगी। श्रीपाल ने सहर्ष आज्ञा प्रदान कर सबको उनके घर भेज दिया। एक दिन श्रीपाल कुमार जिन-मन्दिर में दर्शन करने गये। दैवयोग से लौटते समय मार्ग में माता से भेंट हो गयी। श्रीपाल ने बहुत ही आदर और प्रेम से माता को प्रणाम किया। इस भेंट से दोनों को असीम आनन्द हुआ। उनके हृदय पुलकित हो उठे। कंठ गद्गद् हो गया और नेत्रों से हर्ष के आँसू बह चले। इसी समय वहाँ मैनासुन्दरी भी आ पहुँची। आकार-प्रकार से उसने तुरन्त ही अपनी सास को पहचान लिया। बड़े आदर से पैर छुए। सास ने भी शिर पर हाथ फेर मंगल-आशीर्वाद दिया। पुत्र की निरोगिता और पुत्रवधू की सुशीलता देख रानी कमलप्रभा का हृदय हर्ष के मारे उछलने लगा। श्रीपाल ने कहा-“माता जी! यह सब आपकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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