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श्रीपाल-चरित्र को बहुत ही आनन्द हुआ। उसने कहा कि निःसन्देह यह शासन देवताओं की प्रसन्नता का ही फल है
जिन-मन्दिर के पास ही पौषधशाला में गुरु महाराज देशना दे रहे थे। परमात्मा को पुनः वन्दन कर वे दोनों वहाँ गये और गुरुदेव को वन्दना कर उनके निकट स्थान ग्रहण किया। गुरुदेव ने दोनों को धर्मलाभ प्रदान कर उपदेश देते हुए कहा- “तुम्हें अनेक जन्मों के बाद यह मनुष्य का जन्म मिला है। इसलिये निद्रा और अभिमान का त्याग कर इसे सार्थक करो। ऐसा अपूर्व अवसर जो लोग यों ही खो देते हैं वे लोग मक्खीचूस की तरह हाथ मल-मल कर पछताते हैं। ध्यान रक्खो कि धर्माराधना का यह अवसर एक बार हाथ से निकल जाने पर फिर पश्चाताप के सिवा और कुछ नहीं हाथ आता।"
यह उपदेश देते समय गुरुदेव की दृष्टि मैनासुन्दरी पर पड़ी। वे तुरन्त उसे पहचान गये। उन्होंने पूछा- “हे राजपुत्री! अबतक तो तू अनेक दास-दासियों के साथ यहाँ आती थी। आज हम तुझे अकेली क्यों देख रहे हैं?"
मैनासुन्दरी ने गुरुदेव को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। अन्त में वह बोली- “महाराज ! मुझे और किसी बात का दुःख नहीं है। दुःख केवल यही है, कि लोग अज्ञानता के कारण जिनशासन की निन्दा करते हैं। यह मुझसे सहा नहीं जाता।"
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