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श्रीपाल - चरित्र
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परिसह उपसर्गादिके सहन प्रभृति द्वारा उसकी पूर्णता प्राप्त होती है। ऐसे चारित्र को मैं त्रिविध नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार चारित्र पद की स्तुति कर राजा श्रीपाल ने अन्तिम तप पद की स्तुति आरम्भ की। तप पदका वर्णन
,
अरिहन्त परमात्मा जो जन्म ही से तीन ज्ञान के जानकार थे और जो यह जानते थे कि इसी जन्म में हमारी सिद्धि होनेवाली है, फिर भी कर्मों का क्षय करने के लिये, उन्होंने जिस तप का आरम्भ किया, उस शिवतरु के मूल रूप तपको मैं नमस्कार करता हूँ ।
क्षमा संयुक्त भाव से जिस तप को करने से पूर्वके निकाचित कर्म भी क्षय हो जाते हैं, वही तप वास्तव में सेवन करने योग्य है। जैन शासन की प्रभावना करने में भी जो तप सहाय भूत होता है और जिसके पालन से जैन शासन की उत्तमता को प्राप्त करता है, उस तप को मैं प्रणाम करता हूँ ।
जिस तप के प्रभाव से आमौषधी प्रभृति अनेक लब्धियाँ एवं अष्ट महासिद्धि और नव निधियों की प्राप्ति होती है, उस तप को मैं सादर प्रणाम करता हूँ ।
तप पद की आराधना से प्राप्त होनेवाली लब्धि आदि के नाम जानने की पाठकों को स्वाभाविक ही इच्छा होगी, अतएव उनके नाम नीचे दिये जा रहे हैं
२८ लब्धियाँ - (१) आमौषधी - केवल हाथ के स्पर्श करने से ही रोगी रोग मुक्त हो जाय । (२) विप्रोषधिमल-मूत्र से रोग नष्ट हो जाना। (३) जल्लोषधि - श्लेष्मा
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