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________________ २०० मुनिपद का वर्णन ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी अनुपम रत्नमयी द्वारा जो मोक्ष की साधना करते हैं। वहीं साधु-यति कहलाते हैं। ऐसे साधु, जिस प्रकार वृक्ष पर लगे हुए पुष्प पर भ्रमर बैठता है और उसे किसी प्रकार की हानि न पहुँचा कर धीरे-धीरे उसका रस शोषण कर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट कर लेता है, उसी प्रकार अनेक घरों में गोचरी के निमित्त जाने पर भी किसी को पीड़ा न हो, कष्ट न हो और ४२ दोषरहित शुद्धमान आहार ग्रहण करते हैं और उसी में निर्वाह करते हैं। उन यति मुनिराज को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ। पञ्चेन्द्रियों को जो निरन्तर अपने अधीन रखते हैं, छह कायके प्राणियों का प्रतिपालन करते हैं और सत्तर प्रकार के संयमों की आराधना करते हैं ऐसे दयावान यति मुनिराज को मैं वन्दन करता हूँ अटारह हजार शिलांग रथके वहन करने वाले और अचल आचार युक्त चारित्रवाले यति- मुनिराज को प्रेमपूर्वक वन्दन करने से यह मनुष्य जन्म पवित्र होता है। नव विध ब्रह्मचर्य गुप्तिके पालने वाले और बारह प्रकार के तप करने में ऐसे वीर, यति को वन्दन करने का सुयोग, पूर्व जन्म के पुण्य उदय हुए बिना प्राप्त नहीं होता । छेदन, घर्षण, ताड़न और तपाने आदि के द्वारा जिस प्रकार सुवर्ण की विशुद्धता सिद्ध होती है और उसका रूप बढ़ता है, उसी प्रकार यतिराज अपने कठिन आचारों के कारण उत्तरोत्तर उच्च से उच्चतर स्थान प्रात करते जाते हैं । Jain Education International अठारहवाँ परिच्छेद For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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