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________________ १४ दूसरा परिच्छेद कुछ न कहना ही अच्छा है। फिर भी मुझसे कहे बिना नहीं रहा जाता, इसलिये दो चार बातें कहती हूँ। पिताजी! जिसका हृदय विवेक रूपी दीपक के प्रकाश से प्रकाशित रहता है, वह कभी अज्ञान के फेर में नहीं पड़ता। आप अपने हृदय में विवेक को स्थान दीजिये, कुछ सोचिये समझिये, मिथ्याभिमान न कीजिये; क्योंकि यह सुख-सम्पदा सागर-तरंग की भाँति अस्थिर है। न कहीं यह स्थिर होकर रही है, न रहेगी। साथ ही एक बात और भी ध्यान देने योग्य है। इस संसार में प्राणीमात्र जो सुख-दुःख भोग करते हैं, उसमें अणुमात्र भी कमी या अधिक करना मनुष्य की शक्ति के परे है। आप कहते हैं, कि मैं निर्धन को धनवान और रंक को राजा कर सकता हूँ; परन्तु यह ठीक नहीं। यदि किसी के दुष्कर्मों का उदय हुआ हो तो आप हजार चेष्टायें करने पर भी उसे सुखी नहीं कर सकते और यदि किसी के भाग्य में सुख बदा हो, तो आप उसे उस सुख से वंचित भी नहीं रख सकते। मेरा आपसे यही निवेदन है कि आप मिथ्याभिमान छोड़ दें, इस बुरी धारणा को भूलकर भी हृदय में स्थान न दें। इसी में आपका कल्याण है। मुझे यह सब बातें कहनी उचित न थी, किन्तु आपके अनुरोध करने पर मैं भी चुप न रह सकी। मुझे विश्वास है, कि इससे आप बुरा न मानेंगे। मैनासुन्दरी की यह बातें सुन राजा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। उसकी आँखों से मानों चिनगारियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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