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सोलहवाँ परिच्छेद
कर उसे लूटा था, इसलिये इस जन्म में बाल्यावस्था से ही मैंने तेरा राज्य छीन लिया। उस जन्म में सात सौ सुभटों का मैंने विनाश किया था, अतएव इस जन्म में उन्होंने मुझे बाँध कर तेरे सामने उपस्थित किया । जन्म के सुकृत्यों के कारण मुझे उस समय जाति स्मरण ज्ञान हुआ। अतएव मैंने उसी समय अपने आपको सम्हाला और चारित्र ग्रहण किया । क्रमशः मुझे अवधिज्ञान प्राप्त हुए, इसलिये मैं तुझे उपदेश देने यहाँ आया हूँ। हे श्रीपाल ! उस जन्म में जिसने जैसे कर्म किये थे, इस जन्म में उसे वैसे ही फल मिले । तू यह निश्चय जानना, कि प्राणी जो कर्म करता है, उसे उसका भोग अवश्य ही करना पड़ता है, अतएव उचित तो यह है कि यथा सम्भव कर्म - बन्धन होने ही न दिया जाय ।"
इस प्रकार पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर राजा श्रीपाल के मन में बहुत ही वैराग्य उत्पन्न हुआ । वे अपने मन में कहने लगे :- "अहो ! इस संसार की नाट्यशाला में मैंने न जाने कितने नाटकों का अभिनय किया और आत्मा को विडम्बना में डाला; किन्तु अब इससे मुक्ति पाने का कोई उपाय अवश्य करना चाहिये। यह सोचकर उन्होंने अजीतसेन मुनि से कहा:- महाराज ! इस समय चारित्र ग्रहण करने योग्य मेरी अवस्था नहीं है, किन्तु कृपा कर मुझे कोई ऐसी धर्म क्रिया बतलाइये, जो मेरे लिये उपयुक्त हो और उससे मेरा कल्याण हो । "
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