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________________ श्रीपाल - चरित्र १७१ राजा की आज्ञा ही ऐसा किया जा रहा है, तब वह उसी समय उसके पास पहुँची और क्रुद्ध होकर उसने कहा:"नाथ! आपको अपनी प्रतिज्ञा भी स्मरण नहीं रहती । अभी उस दिन आपने कहा था, कि अब कभी किसी मुनि को कष्ट न दूँगा, किन्तु फिर भी वही बात करने लगे । ध्यान रहे, ऐसे आचरणों से स्वर्ग प्राप्ति दुर्लभ हो जायगी और नरक के दरवाजे खुल जायेंगे ; किन्तु इसमें किसी का क्या दोष ?” आपको नरक ही पसन्द है, तो कोई इसमें क्या कर सकता है ? रानी को क्रोधित देख कर राजा उसी समय शान्त हुआ । उसे न केवल अपनी भूल ही मालूम हुई, बल्कि अपने इस कार्य के लिये पश्चात्ताप भी होने लगा। उसी समय उसने मुनिराज को अपने महल में बुलाकर उनसे क्षमा प्रार्थना कर अपना अपराध क्षमा करवाया। रानी ने भी दुःखित होकर मुनिराज से विनयपूर्वक कहा :- "गुरुदेव ! मेरे पतिदेव परम अज्ञानी हैं। इन्होंने आपका अपमान कर भयंकर पाप किया है। कृपाकर अब इससे मुक्त होने का कोई उपाय अवश्य बतलाइये ।” मुनिने कहा :- "हे भद्रे ! इस भयंकर पाप से यकायक छुटकारा पाना तो कठिन है, फिर भी यदि इसे इसके लिये पश्चाताप होता हो और यह इससे मुक्त होना चाहता है, तो नवपद का जप करे, उसकी आराधना के निमित्त आयम्बिल का तप करे और सिद्धचक्र की पूजा अर्चना करे । इससे कालान्तर में इस पाप से मुक्त हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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