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सोल हवाँ परिच्छेद बुद्धि प्राप्त होने पर भी श्रद्धा नहीं होती। ऐसे मनुष्यों का चित्त सदा अस्थिर और डावाँ डोल बना रहता है। उन्हें कभी भी तत्त्व-बोध की प्राप्ति नहीं होती। वे मूों की भाँति सदा प्राप्त
और अप्राप्त का ही विचार किया करते हैं। जो लोग आगम प्रमाण और अनुमान प्रमाण से ध्यानपूर्वक गवेषणा करते हैं, उन्हीं को तत्वबोध की प्राप्ति होती है। तत्व बोध के भी दो भेद हैं। संवेदन तत्त्व बोध * और स्पर्शतत्त्व- संवेदन तत्त्वबोध बंध्य है और स्पर्श-तत्त्व-बोध से कार्यबोध की सिद्धि होती है अतएव वह फलप्रद है। इसलिये संवेदन तत्त्व-बोध का त्याग कर स्पर्श तत्त्व-बोध को ही ग्रहण करना उचित है।
स्पर्श तत्त्व-बोध के इस प्रकार दश भेद हैं, (१) धर्म का मूल दया है और क्षमा गुण से ही अविरुद्ध भाव में रहती हैं (२) सर्व गुण विनय से ही प्राप्त होते हैं और विनय गुण मार्दव के अधीन है। जिसके मन में मार्दव गुण का वास होता है, उसे सब गुणों की सम्पत्ति अनायास ही मिल जाती है।
जो मनुष्य, बिना श्रद्धा के वस्तु-स्थिति को यथास्थिति समझ कर उसे ग्रहण करता है। वह संवेदन तत्त्व-बोध कहलाता है। शास्त्रकारों ने इसे बंध्या स्त्री की तरह बतलाया है; यानी इस तत्त्व बोध से भव्यजीवों को कुछ भी फल नहीं होता। आगम-शास्त्रों के श्रवण करने से जिस मनुष्य को जीवादि नवतत्वों का श्रद्धा-पूर्वक भली प्रकार ज्ञान हो, उसके विशुद्ध अध्यवसाय एवं मन, वचन, कायाको एकाग्रता द्वारा तथा उत्तम गुरु के सदुपदेश से धर्म की वस्तु-स्थिति का जो तत्त्व-बोध हो, उसे स्पर्श तत्त्व-बोध कहते हैं।
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