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________________ १३२ चौदहवाँ परिच्छेद सन्देश कहला भेजा। साथ ही यह भी कहला दिया, कि यदि उन्हें यह स्वीकार न हो तो युद्ध की तैयारी करें। यथा समय दूत मालवराज की सेवा में उपस्थित हुआ और उन्हें श्रीपाल का सन्देह कह सुनाया। दूत की बात सुनते ही मालवपति के शरीर में मानों आग लग गयी; किन्तु कोई उपाय न था। वे पहले ही सुन चुके थे, कि शत्रु बड़ा प्रबल है। फिर भी वे अपने मन्त्रियों के साथ सलाह करने बैठे। मंत्री चतुर थे, परिस्थिति को वे भली भाँति समझते थे। उन्होंने कहा :- “महाराज! क्रोध करने का यह अवसर नहीं है। शत्रुता और मित्रता समान शक्तिवाले ही से करना उचित है। इस समय हम लोगों को सबल शत्रु से काम पड़ गया है । अतः अवस्था के अनुसार काम न करने से निःसन्देह हमारी ही हार होगी। परमात्मा ने जिसे हम लोगों से श्रेष्ठ बनाया हो, उसके सम्मुख नम्रता प्रकट करना ही हमारा कर्त्तव्य है। दूत की बात हम लोगों को सहर्ष मान लेनी चाहिये। इसमें कुछ भी अनुचित या अपमानजनक नहीं है।" मन्त्रियों की यह बात सुन, मालवपति राजा प्रजापाल ने दूत की बात मान ली। अब वे कन्धे पर कुल्हाड़ी रख, पैरों से चलते हुए श्रीपाल के शिविर में आ पहुंचे। उन्हें आते देख, श्रीपाल ने आगे बढ़ कर उनकी अभ्यर्थना की। उनसे कुल्हाड़ी रखवा कर, उत्तम वस्त्राभूषण पहना कर उन्हें सभा-मण्डप में ले गये। उसी समय वहाँ मैनासुन्दरी उपस्थित हुई। उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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