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श्रीपाल-चरित्र
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अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। अतएव उन्होंने कुछ दिनों के बाद यहाँ से भी सदल बल प्रस्थान किया। मार्ग में अनेक राजाओं से अधीनता स्वीकार कराते और भेंट लेते हुए, वे सोपारकपुर पहुंचे। वहाँ का राजा उनसे मिलने न आया। इसलिये श्रीपाल ने अपने मन्त्रियों से पूछा, कि अन्यान्य राजाओं की भाँति यह राजा हम लोगों से मिलने क्यों न आया? मन्त्रियों ने कहा :-“राजन् ! यहाँ का राजा बहुत ही भला है ; किन्तु इस समय वह एक बड़े भारी संकट में पड़ा हुआ है, इस लिये यहाँ नहीं आ सका।"
श्रीपाल ने पूछा :- “ऐसा कौन संकट है, जो इस समय उसे इस प्रकार व्यग्र बना रहा है?"
मन्त्रियों ने कहा, :- “महाराज! यहाँ के राजा का नाम महसेन और रानी का नाम तारासुन्दरी है। इनके तिलकसुन्दरी नामक एक रूपवती पुत्री थी। उसे देखते ही ऐसा मालूम होता था मानों उसे विधाता ने नहीं, किन्तु स्वयं कामदेव ने ही अपने कर कमलों से बनाया है। उसी पुत्री को सर्पने काट खाया है। राजा ने तंत्र-मंत्र और औषधोपचार करने में कोई कसर नहीं रखी ; किन्तु राज-कुमारी को इससे कुछ भी लाभ न पहुँच सका। इसी से वह इस समय बड़े ही धन्तित और दुःखी हैं।"
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