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________________ श्रीपाल - चरित्र १०५ किन्तु इस अवस्था में वहाँ पहुँचना असम्भव ही दिखायी देता है। कुछ समय के अनन्तर श्रीपाल को विचार आया कि मुझे यह चिन्ता ही क्यों करनी चाहिये ? मुझ पर तो सिद्धचक्र की पूर्ण कृपा है। वही मेरे सब मनोरथ पूर्ण करेगा। अब तक मैंने जितने कार्य किये हैं, वह सब सिद्धचक्र की कृपा से पूर्ण हुए हैं। क्या अब यह काम न होगा ? अवश्य होगा। मुझे उस पर अटल विश्वास रखना चाहिये । इस प्रकार विचार कर श्रीपाल सिद्धचक्र का ध्यान करने लगे। थोड़े ही समय में विमलेश्वर नामक एक देवता प्रकट हुए। वे सौन्दर्य देवलोक के निवासी थे और सिद्धचक्र के अधिष्ठायक थे। उन्होंने श्रीपाल को एक मणिमाला पहना कर कहा:- “हे कुमार ! यह माला बहुत ही प्रभावशाली है। इसके प्रभाव से इच्छित रूप की प्राप्ति होती है । जहाँ इच्छा हो, वहाँ आकाश मार्ग से जाया जा सकता है। बिना अभ्यास के जो चाहे वह विद्या सीखी जा सकती है एवं सभी तरह के जहर का असर दूर हो सकता है । मैं सिद्धचक्र का आज्ञाकारी सेवक हूँ। उनके अनेक भक्तों का मैंने उद्धार किया है। तुम भी इसी तरह सिद्धचक्र की भक्ति करते रहना और जब जरूरत हो, तब मुझे याद करना । " इतना कह, देवता अन्तर्धान हो गये । अनन्तर श्रीपाल निश्चिन्त होकर सो रहे । सुबह बिछौने से उठ कर ज्यों ही उन्होंने कुण्डलपुर जाने की इच्छा की, त्यों ही उन्हाने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001827
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherJain Shwetambar Panchyati Mandir Calcutta
Publication Year2003
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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